जिस्म ए दरख़्त का है अब पतझड़ का दौर, इक लम्बी सी फ़स्ले बहार गुज़र गई,
कुछ ख़त रहे ग़ैर मत्बु'अ कुछ
हवाओं के हमराह उड़
गए, दूर दूर तक
थे पत्तों के
ढेर,
जहाँ तक मेरी नज़र गई, इक लम्बी सी
फ़स्ले बहार गुज़र गई । बेमानी से
हैं अब मुन्तज़िर आंखे, शाम
ए चिराग़ कब के बुझ
गए, घाटियों के
बीच इक
क़दीम
इमारत अंधेरे से पूछता रहा मेरे चाहने वाले
जाने कहाँ गए, लौटती बाज़गश्त ने
कहा धुंध की तरह ज़िन्दगी
वादियों में बिखर गई,
इक लम्बी सी
फ़स्ले बहार
गुज़र
गई ।
- - शांतनु सान्याल

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