19 अक्टूबर, 2025

आलोक धारा - -

नदी को मालूम ही नहीं अपना उद्गम, जन्म

मृत्यु के मध्य वो बहती जाए निरंतर,
उसे पहुंचना है सागर  संगम,
अपरिभाषित प्रेम पड़ा
रहता है गहराइयों
में अंध मीन की
तरह एकाकी,
छूना चाहे
हृदय
उन क्षणों में मौन अधर के सरगम, नदी को मालूम ही नहीं अपना उद्गम । तट विहीन
नयन कोटर लिखे अनगिनत सजल
कविता, कभी बरसे बूंद बूंद,
कभी लवणीय मरुधरा,
शब्दहीन रहते हैं
सदा शास्वत
प्रणय
ऋतंभरा, जो पा जाए दिव्य तुहिन कण, वो
तर जाए भव सिंधु अपार, तृषित वसुधा
के वक्षस्थल में उतरे आलोक स्रोत
मद्धम मद्धम, नदी को मालूम
ही नहीं अपना उद्गम ।
-- शांतनु सान्याल








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