पेश क़ीमत लम्हों को यूँ ही बर्बाद नहीं करते,
जीस्त ए आइने से अक्स आज़ाद नहीं करते,कोई किसी के ग़म का साझेदारी नहीं करता,
पत्थरों में शीशे का मसीहा ईजाद नहीं करते,
गूंगे बहरों की मजलिस में बेमानी हैं अल्फ़ाज़,
इन शाही दीवारों के आगे फ़रियाद नहीं करते,
कुछ जज़्बात बंद पड़े रहते हैं क़दीम संदूक में,
चाबी खो जाए तो दोबारा उसे याद नहीं करते,
ख़्वाबों का तिलिस्म नहीं रहता बहुत देर तक,
सुब्ह नेमत है यूंही दिल को नाशाद नहीं करते,
- - शांतनु सान्याल

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