25 अक्टूबर, 2025

बिखराव - -

जिस्म ए दरख़्त का है अब पतझड़ का दौर,

इक लम्बी सी फ़स्ले बहार गुज़र गई,
कुछ ख़त रहे ग़ैर मत्बु'अ कुछ
हवाओं के हमराह उड़
गए, दूर दूर तक
थे पत्तों के
ढेर,
जहाँ तक मेरी नज़र गई, इक लम्बी सी
फ़स्ले बहार गुज़र गई । बेमानी से
हैं अब मुन्तज़िर आंखे, शाम
ए चिराग़ कब के बुझ
गए, घाटियों के
बीच इक
क़दीम
इमारत अंधेरे से पूछता रहा मेरे चाहने वाले
जाने कहाँ गए, लौटती बाज़गश्त ने
कहा धुंध की तरह ज़िन्दगी
वादियों में बिखर गई,
इक लम्बी सी
फ़स्ले बहार
गुज़र
गई ।
- - शांतनु सान्याल 

20 अक्टूबर, 2025

दिवाली की रात - -

असंख्य आकाश प्रदीप के मध्य टूटे

हुए तारे की ख़बर कोई नहीं
रखता, सारा शहर है
रौशनी में नहाया
हुआ, फूट
रहे हैं
गली चौबारों में रंगीन अग्नि वलय,
धुंध में भटके हुए पंछियों को
अपने घर कोई नहीं
रखता, असंख्य
आकाश प्रदीप
के मध्य टूटे
हुए तारे
की
ख़बर कोई नहीं रखता । न जाने
कितनी आंखों को आज भी
है क्षितिज में उभरती
हुई हल्की रौशनी
की तलाश,
न जाने
कितने
ही
दिलों में हैं बाक़ी आज भी एक
ख़ूबसूरत दीवाली की आस,
हर एक निगाह देखती
है झिलमिलाते हुए
आसमां की
ओर,
ज़मीं में बिखरे हुए जुगनुओं पर नज़र
कोई नहीं रखता, असंख्य आकाश
प्रदीप के मध्य टूटे हुए तारे
की ख़बर कोई नहीं
रखता ।
- - शांतनु सान्याल

19 अक्टूबर, 2025

आलोक धारा - -

नदी को मालूम ही नहीं अपना उद्गम, जन्म

मृत्यु के मध्य वो बहती जाए निरंतर,
उसे पहुंचना है सागर  संगम,
अपरिभाषित प्रेम पड़ा
रहता है गहराइयों
में अंध मीन की
तरह एकाकी,
छूना चाहे
हृदय
उन क्षणों में मौन अधर के सरगम, नदी को मालूम ही नहीं अपना उद्गम । तट विहीन
नयन कोटर लिखे अनगिनत सजल
कविता, कभी बरसे बूंद बूंद,
कभी लवणीय मरुधरा,
शब्दहीन रहते हैं
सदा शास्वत
प्रणय
ऋतंभरा, जो पा जाए दिव्य तुहिन कण, वो
तर जाए भव सिंधु अपार, तृषित वसुधा
के वक्षस्थल में उतरे आलोक स्रोत
मद्धम मद्धम, नदी को मालूम
ही नहीं अपना उद्गम ।
-- शांतनु सान्याल








11 अक्टूबर, 2025

उजालों का शहर - -

उतार चढ़ाव कम न थे ताहम ख़ूबसूरत

ज़िन्दगी का सफ़र रहा, हर मोड़
पर थे सवालिया निशान
बड़ा दिलकश
रहगुज़र
रहा ।
अनगिनत बार ज़िन्दगी ने पाई सज़ा
बारहा रस्म ए रिहाई भी, बूंद
भर की ख़्वाहिश थी
कहने को हद
ए नज़र
समंदर
रहा ।
कुछ अंध गलियों में आज भी रौशनी
का नाम ओ निशां नहीं, सितारों
की मजलिस में कहीं गुम
जगमगाता सा ये
शहर
रहा ।
न जाने वो कौन था जिसने दिखाई
थी उम्मीद की इक किरण,
दोबारा वो न मिला
कहीं जिसका
इंतज़ार
मुझे
ज़िन्दगी भर रहा - -
- - शांतनु सान्याल


07 अक्टूबर, 2025

नेमत - -

पेश क़ीमत लम्हों को यूँ ही बर्बाद नहीं करते,

जीस्त ए आइने से अक्स आज़ाद नहीं करते,

कोई किसी के ग़म का साझेदारी नहीं करता,
पत्थरों में शीशे का मसीहा ईजाद नहीं करते,

गूंगे बहरों की मजलिस में बेमानी हैं अल्फ़ाज़,
इन शाही दीवारों के आगे फ़रियाद नहीं करते,

कुछ जज़्बात बंद पड़े रहते हैं क़दीम संदूक में,
चाबी खो जाए तो दोबारा उसे याद नहीं करते,

ख़्वाबों का तिलिस्म नहीं रहता बहुत देर तक,
सुब्ह नेमत है यूंही दिल को नाशाद नहीं करते,
- - शांतनु सान्याल

05 अक्टूबर, 2025

निरंजना स्रोत - -

विसर्जित प्रतिमा में कहीं प्राण की है तलाश,

घुल चुके सब रंग रोगन माटी, रह गई
केवल काठ की संरचना, यायावर
जीवन पुनः खोजता है स्थायी
निवास, विसर्जित प्रतिमा
में कहीं प्राण की है
तलाश । नदी
अपने वक्ष
स्थल
में सब कुछ लेती है समेट, निभा जाती है
मातृ सलिला की विराट भूमिका,
उसके दृष्टि में सब कुछ है एक
समान, क्या श्रद्धा सुमन
और क्या आवर्जना,
बहा ले जाती है
हर एक को
अपने साथ
सुदूर
भवसागर की ओर, उसे नहीं मिलता
अनंतकाल तक कोई अवकाश,
विसर्जित प्रतिमा में कहीं
प्राण की है
तलाश ।
- - शांतनु सान्याल 

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