शून्य हथेलियों में गिन रहा हूँ अमूल्य पहर,
आश्चर्य से तकता है मुझे ये दर्पण का नगर,
एक अद्भुत सा ठहराव है परिचित चेहरों में,
हर हाल में है गतिशील ये जीवन का सफ़र,
दीर्घ अंतर्यात्रा का है अपना भिन्न ही सौंदर्य,
चाँद के डूबते ही समुद्रतट भी जाता है उतर,
वो सारे मुस्कुराते पल अल्बम में गए सिमट,
जिनके लिए पीछा किया हमने ज़िन्दगी भर,
कुछ अनुभूति, हमेशा रह जाती हैं अनदेखी,
क्रमशः सप्तरंगी अभिलाष हो जाते हैं धूसर,
नातेदारी के समीकरण सहज नहीं होते हल,
फिर भी लगाना पड़ता है मुहब्बत का मोहर ।
- - शांतनु सान्याल