31 मई, 2025

ढलान - -

शून्य हथेलियों में गिन रहा हूँ अमूल्य पहर,
आश्चर्य से तकता है मुझे ये दर्पण का नगर,

एक अद्भुत सा ठहराव है परिचित चेहरों में,
हर हाल में है गतिशील ये जीवन का सफ़र,

दीर्घ अंतर्यात्रा का है अपना भिन्न ही सौंदर्य,
चाँद के डूबते ही समुद्रतट भी जाता है उतर,

वो सारे मुस्कुराते पल अल्बम में गए सिमट,
जिनके लिए पीछा किया हमने ज़िन्दगी भर,

कुछ अनुभूति, हमेशा रह जाती हैं अनदेखी,
क्रमशः सप्तरंगी अभिलाष हो जाते हैं धूसर,

नातेदारी के समीकरण सहज नहीं होते हल,
फिर भी लगाना पड़ता है मुहब्बत का मोहर ।
- - शांतनु सान्याल

30 मई, 2025

अंतस्सलिला - -

न जाने कितने घुमरी छुपाए सीने में

नदी बहती है मेरे अस्तित्व के
अभ्यंतर, वो कभी सुप्त
अग्नि तो कभी हिम -
नद सी है गहन
स्थिर, बहुधा
प्रवहमान्
लहरों
के
संग ले जाए सुदूर अपने समानांतर,
जाने कितने घुमरी छुपाए सीने में
नदी बहती है मेरे अस्तित्व के
अभ्यंतर । कोई वशीकृत
पंछी की तरह मैं पंख
अपने कटवाना
चाहूँ, चाह
कर भी,

खुले आसमान में उड़ना चाहूँ, वो प्रणय
जाल है या मोह का कण्टक वन,
जितना उभरूँ उतना डूबता
जाऊँ, कदाचित नदी
जाने है कोहरे में
लिपटे हुए
रहस्यमय
जंतर मंतर, न जाने कितने घुमरी छुपाए
सीने में नदी बहती है मेरे अस्तित्व के
अभ्यंतर ।
- - शांतनु सान्याल

25 मई, 2025

अशेष संवाद - -

बहुत कुछ कह चुका फिर भी बहुत कुछ

कहना है बाक़ी, अभी अभी सांध्य
प्रदीप जले हैं चौबारों में, अभी
तक नदी के सीने में है
मौजूद सूरज के
कुछ रक्तिम
पदचिन्ह,
अभी
तो है ये प्रारंभ, अंतरतम स्रोत का मंथर
गति से तमाम रात गुज़रना है बाक़ी,
बहुत कुछ कह चुका फिर भी
बहुत कुछ कहना है
बाक़ी । हमारे
मध्य का
सेतु
जोड़े रखता है किनारे की उथल पुथल को,
वो प्रेम है या स्पृहा, अपरिभाषित कोई
नेह बंधन, जो भी हो, हमें रखता है
बांधे एक दूजे के अंदर तक,
अंकुरित बीज की तरह
अभिलाष रहते हैं
भूगर्भस्थ, कुछ
और गहनता
बढ़े कुछ
और
सपनों को पंख लगे, ओस बूँदों के संग मिल
कर ख़ुश्बू की तरह अंतर्मन में अभी
घुलना है बाक़ी, बहुत कुछ कह
चुका फिर भी बहुत कुछ
कहना है बाक़ी ।
- - शांतनु सान्याल

अधिकार - -

जल स्पर्श से गहराई का अंदाज़ नही होता,

टोह पाने के लिए पानी में उतरना है
ज़रूरी, ये दुनिया है सितमगर
सरल रेखा पर चलने नहीं
देगी, साहिल न सरक
जाए बहोत दूर,
वक़्त से
पहले
सतह पर उभरना है ज़रूरी, टोह पाने के
लिए पानी में उतरना है ज़रूरी । मुझे
अंदाज़ था वो शपथ ले के मुकर
जाएगा लेकिन ये भी यक़ीन
था अपनी नज़र में वो
एक दिन ख़ुद ही
गिर जाएगा,
कुछ बातें
होती
है बेहद कड़वी फिर भी जीने के लिए उन्हें
निगलना है ज़रूरी, टोह पाने के लिए
पानी में उतरना है ज़रूरी । वो
दख़ल करना चाहे रफ़्ता
रफ़्ता ज़मीन, मकान,
मुझे अपने ही
देश में जला
वतन कर
के, अस्तित्व रक्षा के लिए हाथों में अस्त्र
ले कर निकलना है ज़रूरी, टोह पाने
के लिए पानी में उतरना
है ज़रूरी ।
- - शांतनु सान्याल 

23 मई, 2025

अपना अपना बाइस्कोप - -

गुज़रे थे कभी हम भी, गुलमोहरी रहगुज़र से,

बहुत कुछ खो के पाया, ज़िन्दगी के सफ़र से,

कभी चाँद रात, तो कभी अंधकार मुसलसल,
चंद ख़्वाब सजाए बचा के दुनिया के नज़र से,

भटका किए यूं तो भीड़ भरी राहों में दर ब दर,
कभी रहे मुक्कमल बेख़बर, अपने ही शहर से,

सुबह ओ शाम के दरमियां, बदलते रहे सफ़ात,
किताब ए जीस्त ढूंढ लाए मुहोब्बत के डगर से,

सलीब रहा अपनी जगह जिस्म ओ जां नदारत,
अक्सर हम भी दौड़े मसीहाई की झूठी ख़बर से,

न जाने कौन कायाकल्प की अफ़वाह उड़ा गया,
हर शख़्स है मुन्तज़िर जीस्त बहाली के असर से, 

दिखाते हैं लोग अपने बाइस्कोप से जन्नती रास्ता,
इस पागलपन को ज़मीं पे लाए हैं जाने किधर से,
- - शांतनु सान्याल



22 मई, 2025

अपने हिस्से की चाँदनी - -

रात गहराते ही कोलाहल को विराम मिला,

ऊंघता अंध गायक, अर्धसुप्त सारमेय,
जन शून्य रेल्वे प्लेटफार्म, अंतहीन
नीरवता का साम्राज्य, ज़िन्दगी
को चंद घड़ियों का आराम
मिला, रात गहराते ही
कोलाहल को
विराम
मिला ।
उभर चले हैं सितारों के अनगिनत कारवां,
हिसाब कोई नहीं रखता नक्षत्र के टूट
कर बिखरने का, निशि  पुष्पों को
है हर हाल में गिरना धरा की
धूल में, कुछ स्मृति सुरभि
रह जायेंगे सृष्टि के
कैनवास में,
हर एक
को
निभानी है अपनी अपनी भूमिका, सब
नियति के हाथों है नियंत्रित, व्यर्थ
है सोचना किस को कितना
ईनाम मिला, रात गहराते
ही कोलाहल को
विराम मिला ।
- - शांतनु सान्याल

17 मई, 2025

जन्मस्थान - -

कोहरे की आत्मजा अरण्य नदी, उम्र भर

का दर्द समेटे बहती है चट्टानों के
दरमियान, कभी ओझल
कभी आकाशीय
आभा लिए
सीने में,
सरल रेखाओं के हमराह चलना ज़िन्दगी
नहीं, हर चीज़ ग़र दहलीज़ में हो
मय्यसर फिर कुछ भी मज़ा
नहीं जीने में, अंतिम बिंदु
का भय, मिथक से
अधिक कुछ भी
नहीं, जहाँ
रास्ता
ख़त्म हो वहीं समझ लें आसपास दूसरा
रास्ता है विद्यमान, कोहरे की
आत्मजा अरण्य नदी,
उम्र भर का दर्द
समेटे बहती
है चट्टानों
के दरमियान । कभी बारिश में काग़ज़ की
नाव बहा के देखो, हथेलियों में जल
बिंदुओं को सजा के देखो, यक़ीन
मानों हर चीज़ आसान नज़र
आएगी, ये जो उमस भरी
रात है अभी इस पल
देखते देखते यूँ ही
गुज़र जाएगी,
इक हल्की
सी लकीर
जो बहुत
दूर
नज़र आती है वहीं पर कहीं है उजालों
का जन्मस्थान, कोहरे की आत्मजा
अरण्य नदी, उम्र भर का दर्द
समेटे बहती है चट्टानों के
दरमियान ।
- - शांतनु सान्याल 

14 मई, 2025

शून्य अवशिष्ट - -

गुम होते होते आख़िर में कुछ भी नहीं बचता

खोने के लिए, ख़ुद को उजाड़ कर चाँद,
बिखेर जाता है चाँदनी हर तरफ,
गली कूचों से निकल दिल
के अंध कोनों तक,
बारिश में भीगी
हुई वादियाँ
भेजती
हैं चिट्ठियाँ, शेष रात्रि, रिक्त हाथों में कुछ भी
नहीं बचता स्वप्न बीज दोबारा बोने के
लिए, गुम होते होते आख़िर में कुछ
भी नहीं बचता खोने के लिए ।
निर्जला मैदान में कोई
निःसंग पखेरू, न
जाने किस
अज्ञात
करुण
सुर में गीत गाता रहा, क्रमशः उसकी आवाज़
भी छायापथ में कहीं खो गई, सभी स्वप्न
कल्पनाएं इसी तरह दूरवर्ती किसी
महाशून्य में खो जाएंगे, प्रतिश्रुति
के तमाम मोती बिखरे पड़े
रहते हैं धरा की गोद में
बस हम नहीं होते
हैं उन्हें करीने
से पिरोने
के लिए,
गुम होते होते आख़िर में कुछ भी नहीं बचता
खोने के लिए ।
- - शांतनु सान्याल 

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past