19 सितंबर, 2024

मिलो तो सही - -

मिलो तो सही इक बार वैसे

मुझ में अब कुछ ख़ास
न रहा, कई भागों
में बंटने के
बाद
शून्य के सिवा कुछ पास न
रहा, दस्तकों की उम्र
ढल चुकी, दरवाज़े
भी हैं निष्क्रिय
से मौन,
घरों
के अंदर बन गए घरौंदे अनेक
कहीं भी आवास न रहा,
राजपथ के सीमांत,
कोने में कहीं
उभरता है
पूनम
का
चांद हर शै अनवरत है गतिमान
ताहम वो सुंदर मधुमास
न रहा, चाँदरात में
शायद आज
भी नहाते
हैं कच्ची
उम्र के
कोपल, शिद्दत से मिलते हैं लोग
लेकिन रिश्तों में वो मिठास
न रहा ।
- - शांतनु सान्याल


18 सितंबर, 2024

उस पार - -

इक हल्की सी लकीर झुकी

पलकों पे खींच गया
कोई, कुम्हलाए
हुए ख़्वाब
को जैसे
रात
ढले सींच गया कोई, अस्थिर
कमल पात पर देर तक
ठहरा हुआ था मेह
बूंद, वक्षस्थल
के सरोवर
को
उजाले से पूर्व उलीच गया
कोई, चिर दहन ले कर
आबाद रहता है
मुहोब्बत का
महानगर,
उस
पार है अदृश्य जग, दरवाज़ा
हौले से मीच गया कोई ।
- - शांतनु सान्याल

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