14 मई, 2022

निःशर्त हो सब कुछ - -

आंचल की अपनी अलग है मजबूरी
ज़रूरत से ज़ियादा समेटा न
कीजिए, बिखरने दें ख़ुश्बू
की मुग्धता अपनी
ही शर्तों पर,
ब'ज़ोर
हवाओं का रूख़ अपनी तरफ मोड़ा न
कीजिए, दिल की गहराइयों से जो
उठती हैं मौज ए इबादत, वो
आसमां को झुका जाए,
हर एक मोड़ पर
मसीहा नहीं
मिलते,
हर एक शख़्स के सामने अपने हाथ
यूँ ही जोड़ा न कीजिए, न कोई
सरसराहट, न कोई आहट,
मुद्दत हुए गुलशन से
बहारों का कूच
होना, यूँ ही
अचानक
से मेरी
ज़िन्दगी में आप आया न कीजिए, न
जाने क्यूँ वो फेंकते हैं रह रह कर 
इक तिलस्मी छल्ला, अब कोई
ख़्वाब नहीं उभरते मेरी
आँखों में, बेवजह
यूँ ही आधी
रात,गहरी
नींद
को भरमाया न कीजिए, आंचल की
अपनी अलग है मजबूरी
ज़रूरत से ज़ियादा
समेटा न
कीजिए।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
    
 

09 मई, 2022

दो घड़ी के उस पार - -

उतरती दुपहरी में हुज़ूर, सुबह का अक्स
न तलाश करो, चल सको, तो चलो
कि दूर तक कोई मरुद्यान
नहीं, देह से लिपटे हैं
बेशुमार थूअर के
ज़ख़्म, इस
यात्रा में
कहीं
कोई अनुताप के लिए स्थान नहीं, जो -
मिल गया वही था, एक मुश्त
नियति का उपहार, जो खो
गया सो गया उसकी
वापसी का अब
न आस करो,
उतरती
दुपहरी में हुज़ूर, सुबह का अक्स न - -
तलाश करो। अजीब से हैं ये सभी
चाहतों के रिश्ते, इक छोर
से लपेटें, तो दूसरा
छोर ख़ुद ब
ख़ुद जाए 
खुल,
योग - वियोग करते रहे उम्र भर, अंतिम
प्रहर में शून्य के सिवा कुछ न मिला,
इक नशे से कुछ कम नहीं ये
ज़िन्दगी, काश आख़री
पहर से पहले ज़रा
सा जाएं संभल,
धूप - छांव
का ग्राफ
अपनी जगह होता है निरंकुश, जो पल -
हैं हासिल अभी वही हैं अनमोल
मोती, जो टूट के बिखर गए
सो बिखर गए उन्हें
सोच के ख़ुद को
न उदास
करो,
उतरती दुपहरी में हुज़ूर, सुबह का अक्स
न तलाश करो।
 * *
- - शांतनु सान्याल
 नागपुर

04 मई, 2022

मुहूर्तों के उस पार - -

ये काठ के खम्बे ही हैं जो थाम रखे हैं
पुल का अस्तित्व, दोनों पार की
दुनिया है सलामत इसी
एक विश्वास पर,
गुज़रना है
हमें
इसी जर्जरित राह से हो कर, नज़र है
टिकी हुई उस पार की ज़िन्दगी
पर, मुहूर्तों का अंक है एक
भूल भुलैया, उम्र नहीं
गुज़रती सपनों
के पूर्वाभास
पर, ये
काठ
के खम्बे ही हैं जो थाम रखे हैं पुल -
का अस्तित्व, दोनों पार की
दुनिया है सलामत इसी
एक विश्वास पर।
ख़ुशियों की
साझेदारी
में ही
है
छुपी हुई दिल की अदृश्य ख़ूबसूरती,
जबकि आजन्म हम भटकते रहे
इस घाट से उस घाट के
दरमियां, फिर भी
पाना नहीं
आसां,
दुःख
दर्द से मुक्ति, कुछ भी असर नहीं -
होता चाहतों के मोहपाश पर,
ये काठ के खम्बे ही हैं जो
थाम रखे हैं पुल का
अस्तित्व, दोनों
पार की
दुनिया
है सलामत इसी एक विश्वास पर। - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past