16 जून, 2020

पिघलते लम्हात -

उन वाष्पित पलों में कहीं तुमने
उकेरा था मेरा नाम बड़ी
गर्मजोशी से, वही हैं
खिड़कियां, वही
शीशों वाला
दरवाज़ा,
वादियों में अक्सर उभरते हैं - -
बादल, लेकिन बरसते नहीं,
तकता हूँ मैं सुनसान
राहों को बड़ी
ख़ामोशी
से । गुलमोहर झर चले हैं, और
अमलतास बेरंग, फिर भी
ज़िन्दगी नहीं रुकती
किसी के लिए,
नाज़ुक हैं
बहोत ये पल नजदीकियों के,
न तोड़ इन्हें यूँ मायूसी से।
कुछ बूंद मेरी आँखों
के तेरी हथेली पे
पनाह चाहें,
पत्थर
हूँ या कोई गौहर नादिर, बिखरे
जज़्बात मेरे पारखी निगाह
चाहें ।
- - शांतनु सान्याल








5 टिप्‍पणियां:

  1. ज़िन्दगी नहीं रुकती
    किसी के लिए,
    नाज़ुक हैं
    बहोत ये पल नजदीकियों के,
    न तोड़ इन्हें यूँ मायूसी से।
    कुछ बूंद मेरी आँखों
    के तेरी हथेली पे
    पनाह चाहें,....
    आह , बहुत ही दिल छूने वाली अभिव्यक्ति

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  2. असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।

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