मुसलसल ख़ामोशी थी हद ए नज़र तक,
स्टेशन रहा मुन्तज़िर लेकिन नहीं
लौटा मेरा बचपन, न जाने
किस सिम्त मुड़ गई
तमाम पटरियां,
उम्र भर
लेकिन दौड़ता रहा, मेरे रग़ों में इक मीठा
सा कंपन। जब कभी शाम हुई बोझिल,
बहोत याद आए तालाब के छूटते
किनारे, कच्चे सिंघाड़ों की
उम्र थी मुख़्तसर, शाम
ढलते, नीले थोथों
में डूब गए
सारे।
न जाने क्या बात थी उस सोंधी ख़ुश्बू की,
जो आज तक है ज़िंदा, रूह में हमारे।
* *
- शांतनु सान्याल
painting by Alexandros-Christofias-boy-reading