आसमानी मजलिस थी कोई, उठ गई अपने
आप सुबह से पहले, इक ख़ुमार सा है
बाक़ी दिलो जां में दूर तक, मानों
फिर डूबने की हो ख़्वाहिश,
किनारे के सतह से
पहले। मेरा
वजूद
जो भी हो ज़माने की नज़र में, तुम आज भी
हो पहलू में मेरे, किसी अमरबेल की
तरह, आग का कोई घेरा हो
या मौत का अंधा कुआं,
लगते हो मानों सभी
इक अदद खेल
की तरह।
कहाँ
हासिल है मनमाफ़िक मुराद, फिर क्यूँ न -
ज़िन्दगी से यूँ सुलह कर लिया जाए,
निगाहों के दरमियाँ रहे इश्क़ का
वसीयतनामा, फूल मिले या
काँटे, मुस्कुरा कर ख़ाली
दामन क्यों न भर
लिया जाए,
फिर
क्यूँ न ज़िन्दगी से यूँ सुलह कर लिया जाए।
* *
- शांतनु सान्याल
आप सुबह से पहले, इक ख़ुमार सा है
बाक़ी दिलो जां में दूर तक, मानों
फिर डूबने की हो ख़्वाहिश,
किनारे के सतह से
पहले। मेरा
वजूद
जो भी हो ज़माने की नज़र में, तुम आज भी
हो पहलू में मेरे, किसी अमरबेल की
तरह, आग का कोई घेरा हो
या मौत का अंधा कुआं,
लगते हो मानों सभी
इक अदद खेल
की तरह।
कहाँ
हासिल है मनमाफ़िक मुराद, फिर क्यूँ न -
ज़िन्दगी से यूँ सुलह कर लिया जाए,
निगाहों के दरमियाँ रहे इश्क़ का
वसीयतनामा, फूल मिले या
काँटे, मुस्कुरा कर ख़ाली
दामन क्यों न भर
लिया जाए,
फिर
क्यूँ न ज़िन्दगी से यूँ सुलह कर लिया जाए।
* *
- शांतनु सान्याल


