31 मई, 2017

अगला दरवाज़ा - -

 रात के आख़री पहर, सर्द हवाओं
के हमसफ़र, कभी तो गुज़रो
यूँ ही बेख़ुदी में इस
रहगुज़र।
वो तमाम कागज़ी नाव डूब गए
रफ़्ता - रफ़्ता, किनारों में
अब नहीं बसते
जुगनुओं के
शहर। वो
मांगते हैंअक्सर हम से वफ़ादारी
का सबूत, जो  लोग ओढ़े रहे,
फ़रेब का लबादा उम्र भर।
चेहरे और मुखौटे में
यहाँ तफ़ावत
नहीं आसां,
हाथ तो
मिलते
 हैं मगर, दिल होता है बेख़बर। चलो 
किसी बहाने ही  सही उसने 
याद किया, वरना अगला
दरवाज़ा भी यहाँ होता
है बेअसर। 

* *
- शांतनु सान्याल
 

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