कुछ कच्चे ख़्वाब टूट जाते हैं सुबह से
पहले, और कुछ तपते हैं उम्र भर,
फिर भी कहीं न कहीं सूरज
से शिकायत रह जाती
है दिल ही दिल
में, काश !
नरम
धूप में खिलता मुरझाया बचपन और - -
ख़्वाबों को मिलते धीरे धीरे एक
मुश्त तपन, लेकिन नियति
के आगे सब कुछ जैसे
होता है अर्थहीन,
कब कोंपल
बन जाए
एक
धूसर वृक्ष कहना नहीं सहज, देह में रहते
हैं केवल अस्थिपंजर, और सूरज के
दिए हज़ारों दग्ध निशान, फिर
भी जीवन सेमल की तरह
खिला रहता है सुबह
शाम, सीने में
समेटे
अनगिनत कांटों के गुलिस्तान, सजाता
है वो हर हाल में लेकिन, नाज़ुक
ख़्वाबों के बियाबान।
* *
- शांतनु सान्याल
पहले, और कुछ तपते हैं उम्र भर,
फिर भी कहीं न कहीं सूरज
से शिकायत रह जाती
है दिल ही दिल
में, काश !
नरम
धूप में खिलता मुरझाया बचपन और - -
ख़्वाबों को मिलते धीरे धीरे एक
मुश्त तपन, लेकिन नियति
के आगे सब कुछ जैसे
होता है अर्थहीन,
कब कोंपल
बन जाए
एक
धूसर वृक्ष कहना नहीं सहज, देह में रहते
हैं केवल अस्थिपंजर, और सूरज के
दिए हज़ारों दग्ध निशान, फिर
भी जीवन सेमल की तरह
खिला रहता है सुबह
शाम, सीने में
समेटे
अनगिनत कांटों के गुलिस्तान, सजाता
है वो हर हाल में लेकिन, नाज़ुक
ख़्वाबों के बियाबान।
* *
- शांतनु सान्याल
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