27 नवंबर, 2015

* राब्ता नफ़स - -

बुलाती हैं मुझे साँझ ढलते
वो ख़ामोश निगाहें,
अपने आप मुड़
जाती हैं
सिम्त उसके ज़िन्दगी की
राहें। बहोत अँधेरा है
उस दहलीज़ के
पार फिर
भी, न जाने क्यों जज़्बात
मेरे उसी में, यूँ ही खो
जाना चाहें। 
वो तमाम रिश्ते हमने तोड़
दिए जो थे महज़
रस्मी, इक
राब्ता
नफ़स है बाक़ी चाहे तो वो
निभा जाऐं।
* *
- शांतनु सान्याल
* राब्ता नफ़स - - रूह से रिश्ता

26 नवंबर, 2015

काश - -

राज़ ए तबस्सुम न पूछ
हमसे ऐ दोस्त,
अनकहे
अफ़सानों के उनवां नहीं
होते। यूँ तो बिखरे
थे हर तरफ
रौशनी के
बूँद,
हर अक्स लेकिन नीले
आसमां नहीं होते।
न जाने क्या था
उनकी चाहतों
का
पैमाना,हर गुज़रती - -
आहट दश्त ए
कारवां
नहीं
होते। उनकी क़दमों की
आहट ने ताउम्र
सोने न दिया,
काश, ये
मेरे
दिल फ़रेब अरमां नहीं -
होते।
* *
- शांतनु सान्याल
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09 नवंबर, 2015

वजूद का परिंदा - -

बुझाने में यूँ तो उसने, कोई
कसर न रखी थी बाक़ी,
फिर भी बर अक्स
तुफ़ां के जले हैं
चिराग़
लहरा कर। बहोत संगे जान
है मेरे वजूद का परिंदा,
हर हाल में उड़
जाता है
मजरूह पंख फहरा कर। न
आज़मा मुझे यूँ अपने
ख़ुद अफ़रीदा*
मयार में,
कि रूह मेरी निकल जाती है
आसमां का सीना गहरा
कर।
* *
  - शांतनु सान्याल
*अफ़रीदा - रचित
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06 नवंबर, 2015

लौटते क़दम - -

फिर घेरती हैं शाम ढलते बचपन की यादें,
वो झील का किनारा, वो टिटहरी की
टेर, और दूर पहाड़ी की ओट
में सूरज का धीरे से
ओझल हो
जाना।
फिर कहीं से तुम आते हो बन कर अरण्य
गंध, सुरमयी अंधेरा फिर खोलता है
अतीत के अनछुए अनुरागी
पल और मैं हमेशा की
तरह करता हूँ
तलाश,
किसी खोई हुई परछाई को। फिर गहराती
है रात लिए सीने में अंतहीन सवाल,
फिर कोई मेरी विनिद्र आँखों
में रख जाता है तृषित
कपास, और मैं
क्रमशः
लौट जाता हूँ सधे क़दमों से बहोत दूर, जहाँ
कोई नहीं होता मेरे आसपास।
* *
- शांतनु सान्याल

 

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