वो कुरेदते हैं बुझी राख कुछ इस तरह
कि इक गुमां सा रहता है फिर
सुलगने का, न खेल यूँ
बार बार, मेरे
ख़ामोश
दर्द ए उल्फ़त से, कहीं झुलस कर न -
रह जाए तेरी ख़्वाब की दुनिया,
रहने दे मुझे यूँ ही अँधेरे
में मुब्तला,कि इक
खौफ़ सा
रहता हर वक़्त दिल को, कहीं फिर न
जल उठे बुझते चिराग़ ज़िन्दगी
के, फिर ज़माने में कहीं
न उठे तबाह कुन
तूफ़ान !
कि मैं तंग हो चुका हूँ यूँ बारहा जीने -
मरने से, रहने दे मुझे मेरे हाल
पे मामुल मुताबिक़ !
कुछ वक़्त
चाहिए
दर्द को दवा तक तब्दील होने में - - - -
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- शांतनु सान्याल