मुख़्तसर आरज़ू
क्यूँ मज़तरब, बेक़रार सा है दिल
अत्शे रूह बढ़ चली
अब्रे अश्क़ रुके रुके सांसें हैं
बोझिल न जाने कहाँ किस मक़ाम
पे रुकी है ज़िन्दगी
ये घने ज़ुल्मात के साए घेर चले
फिर मर्तूब शब् मांगती है
शिनाख्त ए मक़ाला, कहाँ जाएँ इस
वहशतनाक रहगुज़र में
अपनी ही साया है डरी डरी, दूर दूर
आइना है गुमसुम सा
दर ओ दीवार हैं ख़ामोश नज़र, कोई
सूरत कोई बहाना कहीं से
उभर आये, ज़िन्दगी को ढूंढ़ लाएँ
सुबह देखने की सदीद आरज़ू
उम्र भर की तिश्नगी को कमज़कम
दो पल राहत नशीब हो,
-- शांतनु सान्याल
मर्तूब शब् - भीगी रात
मर्तूब शब् - भीगी रात
अत्शे रूह - रूह की प्यास
मज़तरब - परेशां
अब्रे अश्क़ - आंसुओं के बादल
शिनाख्त ए मक़ाला, -- पहचान पत्र