26 दिसंबर, 2010

ख़ुदा हाफिज़

सलीब तो उठाली है,
 ज़िन्दगी न जाने और क्या चाहे 
मुझे बिंधते हैं वो तीर व् भालों से 
बेअसर हैं तमाम सज़ाएँ , मैं बहुत पहले 
दर्द को निज़ात दे चुका, पत्थर से मिलो 
ज़रूर मगर फ़ासला रखा करो, 
न जाने किस मोड़ पे क़दम  डगमगा जाएँ,
वो ख़्वाबों की बस्तियां उठ गईं 
मुद्दतों पहले, हीरों के  खदान हैं 
ख़ाली, सौदागर लौट चुके ज़माना हुआ 
दूर तलक है मुसलसल  ख़ामोशी 
बारिश ने भर दिए वो तमाम खदानों को 
वक़्त ने ढक दिए, धूल व् रेत से 
वो टूटे बिखरे मकानात, कहाँ है 
तुम्हारा वो गुलाबी रुमाल, फूल व् 
बेल बूटों से कढ़ा हुआ मेरा नाम ,
कभी मिले ग़र तो लौटा जाना 
आज भी हम खड़े हैं वहीँ, जहाँ  
पे तुमने ख़ुदा हाफिज़ कहा था इकदिन, 
---- शांतनु सान्याल 













19 दिसंबर, 2010

लकीरें

आकाश पार बहती हैं अदृश्य
कुछ सप्तरंगीय प्रवाहें,
एक स्वप्नमयी पृथ्वी शायद
है कहीं अन्तरिक्ष में,
सुप्त शिशु के मंद मंद मुस्कान
में देखा है उसे कभी,

नदी के बिखरे रेत में
किसी ने लिखा था पता उसका
बहुत कोशिश की, पढ़ पायें!
लकीरें जो वक़्त ने
मिटा दिए, चेहरें में उभर आयीं
काश ! उठते ज्वार की
लहरें इन्हें भी बहा लेतीं,

अर्घ्य में थे कुछ शब्द
जो कभी वाक्य न बन पाए
कुछ बूंदें पद चिन्हों में
सिमट कर खो गए वो
कभी मेघ न बन पाए
सुना है ये नदी गर्मियों में
कगार बदल जाती है फिर
कभी मधुमास में मिलेंगे तुमसे !
--- शांतनु सान्याल

11 दिसंबर, 2010

सीने में डूबता कोई माहताब देखा होगा

१. नीचे है, अथाह खाई लो मैं खड़ा हूँ
किनारे, क्या है दिल में तुम्हारे ख़ुदा जाने,
बेपरवाह ये ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाये
सामने हो तुम, उम्र है कितनी  ख़ुदा जाने,


२. ओष की बूंदें थीं या दर्द के क़तरे
पंखुडियां गुलाब की क्यूँ झुक सी गयीं,
कोई जिस्म पे चला है दहकते पांव
देखते ही उनको सांसें क्यूँ रुक सी गयीं,

३. हमने तो उम्र का बिछौना दे दिया
सर्दियाँ थीं सदीद, चादर नाकाम रही,
तुमने ओढ़ ली ऊनी तश्मीना कम्बल
 यहाँ सिहरन भरी सुबह ओ शाम रही,

४. मुस्कुराने के लिए कोई तो सबब होता
क्या करें बेवजह ही मुस्करा गए,
अश्क छुपाना भी इक सलाहियत है
जान कर भी हम दरवाज़े से टकरा गए,

५. लोग जो हँस पड़े हमने भी साथ दिया
किस लिए इतनी ख़ुशी थी मालूम नहीं,
हम ख़ुद को तलाशते रहे या उनको
ज़िन्दगी थी या ख़ुदकुशी मालूम नहीं,

६.  भीड़ में भी थे सहमे सहमें तन्हां तन्हां
किसी ने  पुकारा ज़रूर, पहचान न पाए,
कब तन्हाईयाँ घिर आयीं घटा बन कर
भीगते गए लेकिन हम उन्हें जान न पाए,

७. लबों को किसी ने छुआ ज़रूर था
बंद पलकों ने कोई ख़्वाब देखा होगा,
गर्म सांसों में नमी  घोल गया कोई
सीने में डूबता कोई माहताब देखा होगा,
- शांतनु सान्याल

04 दिसंबर, 2010

भूमिगत ग्रंथियां

भूमिगत ग्रंथियां भित्तियों को पार
कर गईं, नीड़ की दरारें पूछती हैं
कहाँ व् कैसे तिनकों में परकीय
भावों ने घर किया, हमें तो  पता
ही न चला, हमने तो प्रणय ईंटें
क्रमशः बड़े ही कलात्मक शैली में
सजाया था, सपनों के गारे से,
खिडकियों से झाँकतीं कृष्ण कलि
के फूलों ने कहा- शायद प्रीत में
थी सजलता ज्यादा या अश्रु ही
मिलाना भूल गए, दरारों में भी
जीवन थे, हमने महसूस किया
आत्मीयता की साँसें गिरती
उठतीं हों, जैसे असमय हो जाये
मोहभंग, ग्रंथियों के जनक थे
अपने अति प्रिय, हमने बड़े स्नेह
से उन्हें रोपण किया, सूर्य व्
वर्षा से बचने के लिए, दालान
में थे वो सभी अब तक, लेकिन
कब व् कैसे जड़ों ने आधार भेद,
गृह प्रवेश किया, ये सोच पाते
कि फर्श में स्वप्न हाथों से छूट
कर यूँ बिखरे, जैसे कोई अमूल्य
फूलदानी टूट जाये अकस्मात् -
-- शांतनु सान्याल

03 दिसंबर, 2010

खुद से बाहर कभी,यूँ निकल ही न सके

 ख़याल कि छूट न जाएँ हम कहीं दुनिया की  भीड़ में
 खुद से बाहर कभी,यूँ  निकल ही न सके /

आधी रात किसी ने दी है, कांपती हाथों से दस्तक
सांसों की तपिश, हम पिघल ही न सके /

वो जो कहते हैं, हमसे बेशुमार मुहोब्बत हैं उनको
बारहा चाहा, सांचे में कभी ढल ही न सके /

धनक ने तो बिखेरी हैं रंग ओ नूर उम्र भर ऐ दोस्त
बेमुराद दिल है कि हम मचल ही न सके /

उनकी आहट में भी ख़ुशबू ऐ चमन होता है अक्सर
संदल की तरह मंदिर में बहल ही न सके /

धूप दीप तुलसी शंख की आवाज़े हमें बुलाये हर बार
न जाने क्या नमी है चाह कर जल ही न सके  /

सुलगती  हैं धीमी धीमी लौ से कोई आग सीने में
सारी नदी  है आगे, इक बूंद भी निगल न सके/

बिल्लोरी बदन ले के जाएँ  कहाँ पत्थर के शहर में
ख़ूबसूरत ख्वाबों से,खुद को बदल ही न सके/

खुद से बाहर कभी,यूँ  निकल ही न सके/
---- शांतनु सान्याल

धुँध की गहराइयाँ

धुँध की गहराइयाँ या निगाहों का धोखा
लौटतीं सदाओं ने क्यूँ राह मोड़ लिया

उफ़क़ के पार थे वो सभी कांच के ख़्वाब
बर्फ़ के नाज़ुक परतों में हमें छोड़ दिया,

क़दमों के नीचे था आसमां या झील कोई
चाहा दिल से खेला फिर उसे तोड़ दिया,

इक पुल जो सदियों से था हमारे बीच
पलक झपकते उसे कहीं और जोड़ दिया,

सीने में कहीं है इक गुमशुदा नदी
बहती लहरों का रूख़ तुमने मोड़ दिया,

रेत के वो तमाम घर ढह गए शायद
बड़ी बेदर्दी से जिस्त, तुमने मरोड़ दिया,
लौटतीं सदाओं ने क्यूँ राह मोड़ लिया ,

- - शांतनु सान्याल

ग़ज़ल - - बरसना है तो बरस जाओ

आसमां है कुछ आज मुंह फुलाए, घने बादलों में रुख छुपाये 
बरसना है तो बरस जाओ भी, थम थम के क़हर गिराया न करो,
लटों में उलझ जाती हैं, उमर खय्याम की ख़ूबसूरत रुबाइयाँ 
कांप से जाये है तुम्हारे लब, घबरा के नज़र मिलाया न करो ,
बिखरना ही है ग़र तो समंदर की तरह साहिल को ज़ब्त करें 
मंझधार से उठे लहर की तरह, करीब आ ठहर जाया न करो,
हमने रस्मे उलफ़त, बड़ी खूबी से निभाया, ईमान की मानिंद
संगसार नहीं ये  सर्द बूंदें, हलकी बारिश में यूँ डर जाया न करो, 
निकलो भी कभी खुले मौसम में, खिलते हुए बहार की तरह,
चिलमन से झांकते हुए जाने जाँ, फूलों में रंग भर जाया न करो,
बरसना है तो बरस जाओ भी, थम थम के क़हर गिराया न करो, 
--- शांतनु सान्याल  

01 दिसंबर, 2010

अग्नि वृत्त

कुछ आकृतियाँ शैल चित्रों की तरह जीवन भर अर्थ
की खोज में भटकती हैं, व्यक्तित्व के परिधि में,
त्रिज्या थे वो सभी भावनाएं केंद्र बिंदु को भेद गईं
ज्यामितीय संकेतों ने छला, जीवन गणित था या
कोई महा दर्शन, हम तो केवल छद्म रूपी शतदल
में यूँ उलझ के रह गए कि निशांत का पता न चला,
क्षितिज के आँखों से जब काजल धुले, समुद्र तट
बहुत दूर किसी अपरिचित दिगंत में खो चुका,
प्रतिध्वनियाँ लौट आईं अक्सर हमने तो आवाज़ दी,
किसने किसका हाथ छोड़ा, कौन कहाँ खुद को जोड़ा
बहुत मुश्किल है,समीकरणों का शून्य होना -
किस के माथे दोष मढ़े हमने स्वयं अग्नि वृत्त घेरा,
- - शांतनु सान्याल

क्षणिका - - अरण्य पथ

अरण्य पथ में कुछ किंसुक कुसुम अब तक
पड़े हैं बिखरे, विगत  मधुमास की निशानी
पग चिन्हों तले  कहीं दबे हैं निसर्ग अर्घ्य
या भावनाएं, जीवन तो है लहर अनजानी
मैं डूब जाऊं उस नेह में हर बार हर जनम
प्रीत की गहराइयाँ हैं उनमें जानी पहचानी /
-- शांतनु सान्याल

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