जन - अरण्य की थी अपनी अलग ख़ूबसूरती,
हज़ार बार ख़ुद को गुमशुदा पाया, हज़ार
बार ज़िन्दगी से मुलाक़ात हुई, कहाँ
मिलते हैं मनचाहे रास्ते, कहाँ
कोई खड़ा होता है मुंतज़िर
किसी के वास्ते, बड़े
विस्मय से वो
देखता रहा
मुझ को
एक टक, किसी अजनबी की तरह, यूँ तो हर
एक मोड़ पर रुक कर, बारहा उनसे बात
हुई, हज़ार बार ख़ुद को गुमशुदा
पाया, हज़ार बार ज़िन्दगी
से मुलाक़ात हुई। सभी
दर्प उतर जाते हैं
धीरे - धीरे,
दर्पण रह
जाता
है बिम्ब विहीन, दोनों पार्श्व हैं पारदर्शी, फिर
भी वजूद का ठिकाना कहीं नहीं, वो सभी
हैं कल्प - कहानियों में छुपे हुए चेहरे,
जो दिखाते हैं मिथ्या मरुद्यान,
हमारे पांव तले है केवल
पथरीली ज़मीन,
रात तो गुज़र
गई यूँ ही
बियाबां
के राह चलते, सुबह को हो मुबारक अंतिम -
पहर जो बरसात हुई, हज़ार बार ख़ुद को
गुमशुदा पाया, हज़ार बार ज़िन्दगी
से मुलाक़ात हुई - -
* *
- - शांतनु सान्याल
27 जनवरी, 2022
09 जनवरी, 2022
रतजगा - -
उगते सूरज का था सभी को इंतज़ार,
जो पीछे छूट गए, वो सभी कोहरे
में कहीं खो गए, उनका पता
शायद, दे पाए खोह के
अंधकार, कुछ मृत
स्मृतियों के
जीवाश्म
उभरे
पड़े
थे पिछले पहर, दूर तक जाती है इक
सुनसान सी सड़क, कोई नहीं
जानता, कहाँ, किस मोड़
पर जा कर रुकेगा ये
बोझिल सांसों का
सफ़र, उम्र
भर था
वो
परेशां, देख कर फ़िरौन का कारोबार,
उगते सूरज का था सभी को
इंतज़ार। न जाने किस
दर पर उस ने दी
थी दुआओं
वाली
दस्तक, हर किसी ने कंपन महसूस
किया था ज़रूर, जिसने दरवाज़ा
खोल कर उसे इक नज़र
देखा, वो तर गया
ज़िन्दगी और
मौत के
दोनों
जहान से, न था वो कोई फ़रिश्ता न
ही देवता किसी उजड़े मंदिर का,
वो समदर्शी अक्स था मेरा
जो उतरा था, आईने
के आसमान से,
जो मध्य
रात
बुलाता रहा मुझे बारम्बार, उगते - -
सूरज का था सभी को
इंतज़ार।
* *
- - शांतनु सान्याल
जो पीछे छूट गए, वो सभी कोहरे
में कहीं खो गए, उनका पता
शायद, दे पाए खोह के
अंधकार, कुछ मृत
स्मृतियों के
जीवाश्म
उभरे
पड़े
थे पिछले पहर, दूर तक जाती है इक
सुनसान सी सड़क, कोई नहीं
जानता, कहाँ, किस मोड़
पर जा कर रुकेगा ये
बोझिल सांसों का
सफ़र, उम्र
भर था
वो
परेशां, देख कर फ़िरौन का कारोबार,
उगते सूरज का था सभी को
इंतज़ार। न जाने किस
दर पर उस ने दी
थी दुआओं
वाली
दस्तक, हर किसी ने कंपन महसूस
किया था ज़रूर, जिसने दरवाज़ा
खोल कर उसे इक नज़र
देखा, वो तर गया
ज़िन्दगी और
मौत के
दोनों
जहान से, न था वो कोई फ़रिश्ता न
ही देवता किसी उजड़े मंदिर का,
वो समदर्शी अक्स था मेरा
जो उतरा था, आईने
के आसमान से,
जो मध्य
रात
बुलाता रहा मुझे बारम्बार, उगते - -
सूरज का था सभी को
इंतज़ार।
* *
- - शांतनु सान्याल
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