कब दो किनारे मझधार में आ मिले -
केवल निशीथ के सिवा कोई न
जाने, बिहान भी था विस्मित
देख तरंगों का सर्पिल -
मिलन, धरा और
नभ का विभेद
उस पल
कोई न जाने। अनाहूत वृष्टि की तरह
कोई भिगो गया दूर तक मरू -
प्रांतर, अंतरतम से उठे
उस पल परम -
नाद गहरे,
सुख दुःख, अपने पराये, जन्म मृत्यु,
हिसाब किताब, प्रेम घृणा, सभी
उस पल विस्मृत अवसाद
ठहरे। किस मोड़ से
मुड़ना है किस
राह से
गुज़रना, कब चिता भस्म हो शून्य में
बिखरना, ये रहस्य उसके सिवा
और कोई न जाने। कब दो
किनारे मझधार में आ
मिले, केवल निशीथ
के सिवा कोई न
जाने।
* *
- शांतनु सान्याल
केवल निशीथ के सिवा कोई न
जाने, बिहान भी था विस्मित
देख तरंगों का सर्पिल -
मिलन, धरा और
नभ का विभेद
उस पल
कोई न जाने। अनाहूत वृष्टि की तरह
कोई भिगो गया दूर तक मरू -
प्रांतर, अंतरतम से उठे
उस पल परम -
नाद गहरे,
सुख दुःख, अपने पराये, जन्म मृत्यु,
हिसाब किताब, प्रेम घृणा, सभी
उस पल विस्मृत अवसाद
ठहरे। किस मोड़ से
मुड़ना है किस
राह से
गुज़रना, कब चिता भस्म हो शून्य में
बिखरना, ये रहस्य उसके सिवा
और कोई न जाने। कब दो
किनारे मझधार में आ
मिले, केवल निशीथ
के सिवा कोई न
जाने।
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- शांतनु सान्याल