सच बोलने का हासिल हमसे पूछो
न यारों तमाम वाबस्तगी इक
पल में निकले बेगाने।
उनके हाथों में
था यूँ भी
इंसाफ़ का तराज़ू, दलील ए जुर्म, -
हम जाने या सिर्फ ख़ुदा
जाने। ख़ामोश था
शहर, जब पा
ए ज़ंजीर
हम गुज़रे, शाम ढलने से पहले, - -
वो लगे महफ़िल सजाने।
वादी ए तारीख़ पे,
वीरानगी के
सिवा
कुछ भी नहीं, यहाँ अब कोई नहीं
आता रस्मो रिवाज निभाने।
मुद्दतों बाद वो मिले
ज़रूर लेकिन
बेरुख़ी
ओढ़े हुए, जाली मुस्कानों में थे - -
छुपे हुए अनगिनत बहाने।
* *
- शांतनु सान्याल
न यारों तमाम वाबस्तगी इक
पल में निकले बेगाने।
उनके हाथों में
था यूँ भी
इंसाफ़ का तराज़ू, दलील ए जुर्म, -
हम जाने या सिर्फ ख़ुदा
जाने। ख़ामोश था
शहर, जब पा
ए ज़ंजीर
हम गुज़रे, शाम ढलने से पहले, - -
वो लगे महफ़िल सजाने।
वादी ए तारीख़ पे,
वीरानगी के
सिवा
कुछ भी नहीं, यहाँ अब कोई नहीं
आता रस्मो रिवाज निभाने।
मुद्दतों बाद वो मिले
ज़रूर लेकिन
बेरुख़ी
ओढ़े हुए, जाली मुस्कानों में थे - -
छुपे हुए अनगिनत बहाने।
* *
- शांतनु सान्याल
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