21 सितंबर, 2017

दरमियान ए असल ओ सूद - -

तमाम अशराफ़िया* उनकी महफ़िल -
में रहें मौजूद, हमारी दुनिया ख़ुश
है लरज़ते ज़मीन के बावजूद।
ख़ौफ़ज़दा रहें वो, जो हों
शीशमहल के 
रहने वाले,
हमारे इर्दगिर्द है पत्थरों की इक दिवार
लामहदूद। बियाबां में राह तलाशने
के, हैं हम जन्म से माहिर रूकती 
नहीं ये ज़िन्दगी,चाहे क़दम
रहें खूं आलूद। बिरादरी
है अपनी आबाद,
बर हस्ब, 
राह ऐ  फ़कीरी, वो उलझे रहें उम्र भर -
दरमियान ए असल ओ सूद।

* *
- शांतनु सान्याल 

* संभ्रांत लोग 

16 सितंबर, 2017

जाली मुस्कान - -

सच बोलने का हासिल हमसे पूछो
न यारों तमाम वाबस्तगी इक
पल में निकले  बेगाने।
उनके हाथों में
था यूँ भी
इंसाफ़ का तराज़ू, दलील ए जुर्म, -
हम जाने या सिर्फ ख़ुदा
जाने। ख़ामोश था
शहर, जब पा
ए ज़ंजीर
हम गुज़रे, शाम ढलने से पहले, - -
वो लगे महफ़िल सजाने।
वादी ए तारीख़ पे,
वीरानगी के
सिवा
कुछ भी नहीं, यहाँ अब कोई नहीं
आता रस्मो रिवाज निभाने।
मुद्दतों बाद वो मिले
ज़रूर लेकिन
बेरुख़ी
ओढ़े हुए, जाली मुस्कानों में थे - -
छुपे हुए अनगिनत  बहाने।

* *
- शांतनु सान्याल



 

09 सितंबर, 2017

दूर तक कोई नहीं - -

वैसे तो यहाँ  रहनुमाओं की
कोई कमी नहीं, फिर भी
ज़िन्दगी लौट आती
है अक्सर किसी
अवितरित
लिफ़ाफ़े की तरह, उम्र से
पहले बुढ़ापा ओढ़े हुए, 
दहलीज़ पर अपने,
बेतरतीब से
पड़े हुए।
तुम्हारे और मेरे दरमियान
आज भी है मौजूद शायद
वही पुराना पुल,
 हालाँकि
वक़्त ने बहती नदी को,
बहोत पहले ही चुरा
लिया हमसे, न
अब कोई
किनारा
रहा बाक़ी, और नहीं क़दमों
के निशां दूर तक, दस्तूर
ए ज़माने को बदलना
इतना भी
आसान
नहीं, माथे  से जब क़फ़न
हमने उतारा तो देखा,
तनहा खड़े थे हम
बीच चौक पर,
और ओझल
थे सभी
कारवां दूर तक।

* *
- शांतनु सान्याल

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