लौटते कभी नहीं उद्गम की ओर, बहुत नाज़ुक
होते हैं नेह के धारे, ढलानों का मोह भुला
देता है धीरे - धीरे, बचपन के सभी
मासूम किनारे । हर शख़्स
यहाँ है खोज में, कोई
न कोई दरख़्त
सायादार,
चंद लम्हात के हैं सभी अनुबंध, फिर ख़ूबसूरती -
से हो लें दरकिनार। न जाने कहाँ उड़ा ले
जाए, इन मौसमी हवाओं का कोई
ऐतबार नहीं, उगते सूरज के
सभी हैं पैरोकार यहाँ,
अंधकारमय राहों
का यहाँ
कोई मददगार नहीं। सुबह की तलाश तनहा चले
बदस्तूर, कारवां नहीं देखता मुड़ कर घायल
मुसाफ़िरों को, इन्क़लाब, ख़ुद तलाशती
है भीड़ में, लहूलुहान हाथों में लिए
हुए जलते मशाल, उन जांबाज़
सिरफ़िरों को।
* *
- शांतनु सान्याल
होते हैं नेह के धारे, ढलानों का मोह भुला
देता है धीरे - धीरे, बचपन के सभी
मासूम किनारे । हर शख़्स
यहाँ है खोज में, कोई
न कोई दरख़्त
सायादार,
चंद लम्हात के हैं सभी अनुबंध, फिर ख़ूबसूरती -
से हो लें दरकिनार। न जाने कहाँ उड़ा ले
जाए, इन मौसमी हवाओं का कोई
ऐतबार नहीं, उगते सूरज के
सभी हैं पैरोकार यहाँ,
अंधकारमय राहों
का यहाँ
कोई मददगार नहीं। सुबह की तलाश तनहा चले
बदस्तूर, कारवां नहीं देखता मुड़ कर घायल
मुसाफ़िरों को, इन्क़लाब, ख़ुद तलाशती
है भीड़ में, लहूलुहान हाथों में लिए
हुए जलते मशाल, उन जांबाज़
सिरफ़िरों को।
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- शांतनु सान्याल
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