कभी चाँद रात लगे फीकी -
फीकी और कभी पहलू
में उतरें सितारे।
अजीब सी
है ये उतरती दरिया किस ओर जा
मुड़े कहना नहीं आसां, कभी
तुम हो इस तरफ़, और
कभी हम दूर उस
किनारे।
यूँ ही कश्मकश में न गुज़र जाए -
ये ज़िन्दगी, चलो साँझा कर
लें कुछ दर्द हमारे कुछ
ग़म तुम्हारे।
वक़्त से
जीतना है बहोत मुश्किल, तक़दीर
से शिकवा लाज़िम नहीं,चलता
रहे यूँ ही आँख - मिचौनी
कभी यूँ ही जीता
दो मुझ को भी
झूठमूठ
ही, बचपन वाले वही दूधभात के
सहारे। ये अंधेरे - उजालों
के हैं खेल सारे,
कभी चाँद
रात लगे फीकी - फीकी और कभी
पहलू में उतरें सितारे।
* *
- शांतनु सान्याल
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