मुड़ कर भी उसने देखा नहीं इक बार,
मुन्तज़िर रही मेरी आँखें, यूँ तो
उम्र भर, कि फिर दोबारा
बस न पायी उजड़ी
हुई दिल की
दुनिया,
कहने को यूँ तो दस्तक आते रहे बहार
के, अपने ही घर में रहे गुमसुम
किसी मुहाजिर की तरह,
कि उनसे बिछड़
कर, वाक़िफ़
आईना भी मुझसे पूछता रहा तारुफ़ -
नामा ! कैसे बताएं उसको कि
अब हमें ख़ुद का चेहरा
भी याद नहीं - -
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
wild rose
मुन्तज़िर रही मेरी आँखें, यूँ तो
उम्र भर, कि फिर दोबारा
बस न पायी उजड़ी
हुई दिल की
दुनिया,
कहने को यूँ तो दस्तक आते रहे बहार
के, अपने ही घर में रहे गुमसुम
किसी मुहाजिर की तरह,
कि उनसे बिछड़
कर, वाक़िफ़
आईना भी मुझसे पूछता रहा तारुफ़ -
नामा ! कैसे बताएं उसको कि
अब हमें ख़ुद का चेहरा
भी याद नहीं - -
* *
- शांतनु सान्याल
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