19 फ़रवरी, 2011

मन जाना चाहे

मन जाना चाहे! उस सुदूर 
नील पार्वत्यमालाओं के उसपार,
किसी ध्यानमग्न योगी की भांति 
जो  बैठा ऑंखें मूंद पुरातन कालों से 
एक चित्त, चिर स्थिर, आत्म अनुसन्धान लिए,
शताब्दी गुज़र गए यूँ ही एकाकी 
आग्नेयशैलों में कभी उभरे अग्नि शिखा 
निम्नवर्तीय घाटियों में जन्मे अनगिनत श्रोत 
वन्य पुष्पों में लिपटे असंख्य कालबेल 
सघन श्रावणी जलधाराओं का उत्पात 
कभी ज्येष्ठ की झुलस, न तोड़ पायी उसका 
मौन, न ही भेद पाए झंझा की तीव्र हवाएं !
उसके पाषाणी वक्षों में जागे नित नव 
स्वप्नमयी भूभाग, वृक्षों में खिले फूल 
नीली झीलों से निकले नव प्रजन्मित धाराएँ 
भूकंपीय गुप्त तड़ित न कर पायीं उसे विचलित 
वो युगपुरुष सम दिखलाये हर रात्रि दिशाएं 
आकाशगंगा, तारकवृन्द, चन्द्र किरण झुक 
झुक नमन जताएं !दावानल में भी जो जीवन 
की राह दिखाए, नव कोपल स्वप्न खिलते जाएँ.
-- शांतनु सान्याल 



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