एकाकी और मीलों लम्बी रात, उध्वस्त आकाश
बहु कोणों में टूटता चाँद, दिशाहीन धूमकेतु
उठतीं हैं धूल भरी आंधियां, तो क्या -
लुप्तप्रायः हैं जीवन की परछाइयां फिर भी है
चलना मुझे, दैत्याकार घाटियाँ हों या
अंधकारमय सुरंग, गुफाएं या दावानल
देह बने विषपुरुष, मायावी नागपाश से हूँ मैं
विमुक्त, अविराम प्रवाहित बैरागी मन,
थमना न जाने,एक नयी सुबह की तलाश
अनिद्रित मेरी आँखें, देखें प्रतिपल जागृत स्वप्न
कुम्हलाये शाखों में खिले हैं अनाम फूल
धूल कण झर झर जाएँ, विकशित होते कोमल
किशलय, शिशिर बिंदु में डूबी कलियाँ
लेतीं मधु निश्वास, खंडहर के ईंटों से जागे
अंकुरित बेल, कवक हटाते कमल नाल
करे अस्तित्व उजागर-
शतदल की पंखुड़ियों में लिखें जीवन गीत
कुम्हार के चाकों में डोले मेरा मन
कोई छुए हौले हौले, दे जाए आकार मनोहर
बन जाए स्वप्न सुराही सम, आतुर प्यास बुझाने को,
अंतर्मन में जागें दीप शिखा, देखूं हर
चेहरे में मुस्कान छलक जाने का दृश्य,
बन जाऊं मैं पलक किसी सजल आँखों का
रोक लूँ अप्रत्याशित लय में अश्रु धारा अपनी
ह्रदय की अनगिनत तंतुओं में बूँद बूँद,
देखूं मैं हर वक़्त एक ही ख्वाब, दुनिया बन जाये
एक विस्तृत परिधि, हर बिंदु में तुम, हर एक रेखाओं में हम
आखिर बिन्दुओं से ही बनतीं हैं रेखाएं,
क्यूँ न बन जाएँ हम सब अनंत समानांतर रेखाएं.
--- शांतनु सान्याल
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