23 फ़रवरी, 2011

सांसों की धुंध

इन लक्ष्मण रेखाओं के उसपार भी हैं 
जीवन की अनगिनत वक्र पगडंडियाँ 
कुछ मेघाच्छादित आकाश और झरते 
पुष्प वीथिकाएँ, न समेटो मुझे 
अपनी हथेलियों में हलकी धूप की तरह 
मोहपाश में दम घुटता सा है 
खोल दें फिर वातायन, आने दें कोई 
अपनापन, कभी तो मुझे जानने की ललक 
हो, और कभी मैं देखूं तुम्हें नज़दीक से 
कांपते हैं क्यूँ हाथ छूते ही ह्रदय स्पंदन 
झुकी डालियों से कुछ फूल गिर जाएँ 
असावधानी में, तो कोई बात नहीं, पुष्प 
गिरते हुए भी कम सुन्दर नहीं लगते 
चाहे वो ज़मीं पर गिरें या देवता के पग तले
एक अजनबीपन का रंग घिर आता है 
अक्सर, हालाकि तुम्हारी आँखों में उतरती 
है सांझ इन्द्रधनुषी कई बार, उतरोत्तर 
सजल यामिनी भरती है अथाह सुरभि 
निशि कुसुमों की, न जाने क्या बात है ?
कि तुम तकते हो बंद दरवाज़े यूँ बार बार 
हमने तो कोई दस्तक सुनी नहीं 
पास रह कर भी तुम छोड़ नहीं पाते अपनी 
मौजूदगी का अहसास, जबकि हम खुद को भूल 
जाते हैं तुम्हारी सोच में डूब कर, ये विनिमय 
भावनाओं का या हो तुम काँच के उसपार 
दिखाई जो दे लेकिन छूते ही टूट जाए, ये नाज़ुक 
सपनो की परत है या सांसों की धुंध !
--- शांतनु सान्याल  



19 फ़रवरी, 2011

मन जाना चाहे

मन जाना चाहे! उस सुदूर 
नील पार्वत्यमालाओं के उसपार,
किसी ध्यानमग्न योगी की भांति 
जो  बैठा ऑंखें मूंद पुरातन कालों से 
एक चित्त, चिर स्थिर, आत्म अनुसन्धान लिए,
शताब्दी गुज़र गए यूँ ही एकाकी 
आग्नेयशैलों में कभी उभरे अग्नि शिखा 
निम्नवर्तीय घाटियों में जन्मे अनगिनत श्रोत 
वन्य पुष्पों में लिपटे असंख्य कालबेल 
सघन श्रावणी जलधाराओं का उत्पात 
कभी ज्येष्ठ की झुलस, न तोड़ पायी उसका 
मौन, न ही भेद पाए झंझा की तीव्र हवाएं !
उसके पाषाणी वक्षों में जागे नित नव 
स्वप्नमयी भूभाग, वृक्षों में खिले फूल 
नीली झीलों से निकले नव प्रजन्मित धाराएँ 
भूकंपीय गुप्त तड़ित न कर पायीं उसे विचलित 
वो युगपुरुष सम दिखलाये हर रात्रि दिशाएं 
आकाशगंगा, तारकवृन्द, चन्द्र किरण झुक 
झुक नमन जताएं !दावानल में भी जो जीवन 
की राह दिखाए, नव कोपल स्वप्न खिलते जाएँ.
-- शांतनु सान्याल 



17 फ़रवरी, 2011

समानांतर रेखाएं

एक अंतहीन पथ का पथिक हूँ मैं -
एकाकी और मीलों लम्बी रात, उध्वस्त आकाश 
बहु कोणों में टूटता चाँद, दिशाहीन धूमकेतु 
उठतीं हैं धूल भरी आंधियां, तो क्या -
लुप्तप्रायः हैं जीवन की परछाइयां फिर भी है 
चलना मुझे, दैत्याकार घाटियाँ हों या 
अंधकारमय सुरंग, गुफाएं या दावानल 
देह बने विषपुरुष, मायावी नागपाश से हूँ मैं 
विमुक्त, अविराम प्रवाहित बैरागी मन,
 थमना न  जाने,एक नयी सुबह की  तलाश 
अनिद्रित मेरी आँखें, देखें प्रतिपल जागृत स्वप्न 
कुम्हलाये शाखों में खिले हैं अनाम फूल 
धूल कण झर झर जाएँ, विकशित होते कोमल 
किशलय, शिशिर बिंदु में डूबी कलियाँ 
लेतीं मधु निश्वास, खंडहर के ईंटों से जागे 
अंकुरित बेल, कवक हटाते कमल नाल 
करे अस्तित्व उजागर-
शतदल की पंखुड़ियों में लिखें जीवन गीत 
कुम्हार के चाकों में डोले मेरा मन 
कोई छुए हौले हौले, दे जाए आकार मनोहर 
बन जाए स्वप्न सुराही सम, आतुर प्यास बुझाने को, 
अंतर्मन में जागें दीप शिखा, देखूं हर 
चेहरे में मुस्कान छलक जाने का दृश्य, 
बन जाऊं मैं पलक किसी सजल आँखों का 
रोक लूँ अप्रत्याशित लय में अश्रु धारा अपनी 
ह्रदय की अनगिनत तंतुओं में बूँद बूँद,
देखूं मैं हर वक़्त एक ही ख्वाब, दुनिया बन जाये 
एक विस्तृत परिधि, हर बिंदु में तुम, हर एक रेखाओं में हम 
 आखिर बिन्दुओं से ही बनतीं हैं रेखाएं,
क्यूँ न बन जाएँ हम सब अनंत समानांतर रेखाएं.
--- शांतनु सान्याल   

13 फ़रवरी, 2011

रात ढलते

उम्मीद हद से आगे न बढ़े इसका भी ख़याल हो
 दिल ग़र खो जाय कहीं उसका न ज़रा भी मलाल हो,
इतना क्या सोचते हो के ख़ुद को ही यूँ  भूल जाओ
न रुके कोई किसे के लिए खुश रहो जहाँ जिस हाल हो,
उस नुक्कड़ में सजती हैं, यूँ महफ़िलें रात ढलते
 तकते हो आसमां,जैसे कोई अनसुलझा इक सवाल हो,
 सूख जाएँ न कहीं मौसमी फूलों के दरीचे,ऐदोस्त !
निकल भी आओ क़फ़स से,जहाँ तुम अभी बहरहाल हो,
थाम भी लो निगाहों के ऐतराब, ख़्वाबों की दुनिया
क़बल इसके के हर सिम्त,पुरसर हंगामा ओ बवाल हो,
इस रात के दामन से हैं कुछ राज़े उलफ़त वाबस्ता
न खुले वो रिश्तों के गिरह,चाहे हर जानिब भूचाल हो,
--- शांतनु सान्याल


04 फ़रवरी, 2011

नज़्म - - ख़्वाबों की बेरुख़ी

कैसे तुम्हें बताएं, आस्मां का वो बिखर जाना
तरसते रहे रातभर, हम इक बूँद रौशनी के लिए.
वो सांसों का इन्क़लाब, ख़्वाबों की बेरुख़ी -
तकते रहे सूनी राहों को, दो पल ख़ुशी के लिए.
जाने कहाँ ठहर से गए सितारों के कारवां -
ख़लाओं में तलाशा उन्हें, बाक़ी ज़िन्दगी के लिए.
हवाओं में तैरते रहे, भीगे अहसास-ऐ-खतूत
तरसे निगाह वादी वादी, बरसने की ज़मीं के लिए.
हर तरफ थे शीशमहल, अक्श धुंधलाया सा
कोई तो आवाज़ दे, ज़िन्दा हूँ मैं इस यकीं के लिए.
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- - शांतनु सान्याल
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01 फ़रवरी, 2011

नज़्म - - कोई दस्तक

रौशनदान से उतरती सुनहरी धूप
की तरह, मुठ्ठी भर ख़ुशी मिल जाये कहीं
दालान  के पौधों में जीने की तमन्ना जागे,
बहुत दूर न जाओ छोड़ कर यूँ तन्हां
कोई सुराग़, कोई बहाना, मिलने की आरज़ू
बेख़ुदी में ही सही इक लम्हा रख जाओ कहीं,
इस तरह न भूलो कि याद फिर आ ही न सकें
कोई निशां, कोई दस्तक, सांसों की आहट
उड़ते सफ़ेद बादलों में बरसने की मियाद
तो लिख जाओ कहीं -
यकीं कर लूँ मैं हर सूरत, जीवन बेल खुलकर
संवरना चाहे, पतझर के बाद बहारों का आना
तै हो न हो, ज़रा सा वक़्त मिले कि देख लूँ
गहराइयों कि ज़मीं, कोई वादा, कोई ख्वाहिश
गुलमोहर के शाखों में अपना पता लिख जाओ
कहीं --
--- शांतनु सान्याल     

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