16 जून, 2025

जीवनोत्सव - -

आलोकित पोशाक के अंदर है आदिम काया,

अतृप्त अभिलाषों का मरुभूमि है दूर
तक प्रसारित, ख़्वाबों के उड़ान
पुलों पर दौड़ता सा दिखाई
दे मेरा अपना ही साया,
अपने हिस्से की
रौशनी हर
किसी
ने समेट ली, कदाचित मैं जीवनोत्सव में कुछ
देर से आया, आलोकित पोशाक के अंदर
है आदिम काया । ज़रूरी नहीं कि
स्वर्ण प्याले से ही प्यास बुझे,
अंजुरी भर जल ही
काफ़ी है ताज़ा -
दम होने के
लिए, हार
जीत
अपनी जगह थी पहाड़ के मुक़ाबिल रहा एक
अदद झरना, चट्टानों के दरमियां अनवरत
बह कर उसने ख़ुद का रास्ता बनाया,
वक़्त का रोना था बेवजह, क़समों
की फ़ेहरिस्त है बहुत लम्बी
ये और बात है कि किस
ने कितना साथ
निभाया,
आलोकित पोशाक के अंदर है आदिम काया ।
- - शांतनु सान्याल



11 जून, 2025

सतह के नीचे - -

विनिद्र मेरी आँखें देखती हैं क्षितिज

पार, हस्त रेखाओं में हैं सिमटे
हुए जीवन सार, शीर्षक
विहीन ही रही हृदय
तल की कथा,
अपने सिवा
कोई
नहीं सुनता अंतर व्यथा, सभी प्रतिरोध
के बाद भी जाना है पारापार, हस्त
रेखाओं में हैं सिमटे हुए जीवन
सार । हम दौड़ते रहे उम्रभर
मायाविनी रात के पीछे,
अथाह गहराइयां थी
स्तम्भित धरातल
के नीचे, मुक्त
हो न सके
जकड़ता
रहा
मोह का कारागार, हस्त रेखाओं में हैं
सिमटे हुए जीवन सार । बहुत
दिनों के बाद जब खोली
नेह की गठरी, अपने
हिस्से में शून्य,
चारों दिशाएं
गूंगी बहरी,
अनवरत
निम्नगामी होते हैं रिश्तों के जलधार,
हस्त रेखाओं में हैं सिमटे
हुए जीवन सार ।
- - शांतनु सान्याल 

04 जून, 2025

वापसी - -

सभी नदियां सागर में अंततः जाती हैं मिल,

दिनांत में सभी पंछी लौट आते हैं अपने
घर, सुबह और शाम का चक्र कभी
रुकता नहीं, गतिशील रंगमंच
में वक़्त के साथ अदाकार
बदल जाते हैं, नए
परिवेश में नई
भूमिका,
जीवन के सफ़र में अंतहीन होते हैं मंज़िल,
सभी नदियां सागर में अंततः जाती
हैं मिल । दूरगामी रेल के सह
यात्री की तरह लोग मिल
कर खो जाते हैं दुनिया
की भीड़ में, यादें
टेलीफोन के
तार में
परिंदों की तरह झूलते से नज़र आते हैं,
गुज़रे पल तेज़ी से पीछे छूट जाते हैं
खेत खलियान, बबूल खजूर के
पेड़, पहाड़ी नदी, पुल, सब
कुछ जो हमारे आसपास
थे क्रमशः हो जाते हैं
धूमिल, सभी
नदियां
सागर में अंततः जाती हैं मिल । एहसास
फिर भी बना रहता है अरण्य फूल
की ख़ुश्बू की तरह अंदर तक,
न जाने क्या खिंचाव है जो
हर हाल में लौटा लाता
है हमें अपनी धुरी
में, उस चार
दिवारी से
जैसे
हम वचनबद्ध हों जीने मरने के लिए हमारा
सामयिक सन्यास टूट जाता है अपने
आप, इस पराजय में ही रहता है
उम्र भर का हासिल, सभी
नदियां सागर में अंततः
जाती हैं मिल ।
- - शांतनु सान्याल

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