23 फ़रवरी, 2018

मधुऋतु - -

एक अजीब सी लाजवंती कशिश है
हवाओं में, फिर खिल उठे हैं
पलाश सुदूर मदभरी
फ़िज़ाओं में।
यूँ तो
ज़िन्दगी में उधेड़बुन कुछ कम नहीं,
फिर भी बुरा नहीं, कभी कभार,
रंगीन ख़्वाबों को यूँ बुनना,
अलसभरी निगाहों
में। न पूछ यूँ
घूमा फिरा
कर
इल्म हिसाब ऐ दोस्त, हमेशा सरल -
रेखा पर चलना नहीं आसान,
बहुत सारे मोड़ होते हैं
ज़िन्दगी के राहों
में। ज़रूरी
नहीं कि,
हर
बार उछाला हुआ सिक्का हो विजयी
हमारी चाहों में।

* *
- शांतनु सान्याल


19 फ़रवरी, 2018

डूबते गए - -


सभी आधे - अधूरे हैं, कहीं मेरी परछाइयाँ
कहीं तुम्हारा सूखता हुआ अपनापन,
सारे देह में कभी उग आएं काँटों
के सहस्त्र  कोशिकाएं
और कभी एक
सजल -
स्पर्श भर जाए मीलों लम्बा सूनापन। सेमल
के फूलों सा कभी गिर आए स्वप्न -
फिरकी और उदास  ज़िन्दगी
को दे जाए भोर का
उजलापन।
मोड़ -
विहीन इस रहगुज़र में कोई दरख़्त साया -
दार मिले न मिले, सफ़र अपनी
जगह है जारी यथावत,
जब साहिल पे
उतरे रात
ढले,
किसे याद रहा कहाँ पे थी अथाह गहराई
और कहाँ साँसों का उथलापन।

* *
- शांतनु सान्याल



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