27 सितंबर, 2016
13 सितंबर, 2016
श्रृंखल विहीन - -
अदृश्य मेघ की तरह कोई छुअन हो
भीगा सा, जो छू जाए अंतर्मन
का मीलों लंबा सूखापन।
कहने को यूँ तो
जीवन के
दोनों
तट में हैं, चिरहरित पेड़ की कतारें,
सृष्टि का विधान समझना नहीं
आसान, कहीं दूर दूर तक
हैं बिखरे मरू प्रांतर,
और कहीं वृष्टि
का अति
अपनापन। दिल के अहाते खिले हैं
हरसिंगार उन्मुक्त, महक चले
फिर प्रतिबिंबित भावनाएं,
दर्पण के नेपथ्य में है
कहीं गुम, मेरा
अबोध
बचपन, फिर अलमस्त हो बिखरना
चाहे श्रृंखलित जीवन।
* *
- शांतनु सान्याल
भीगा सा, जो छू जाए अंतर्मन
का मीलों लंबा सूखापन।
कहने को यूँ तो
जीवन के
दोनों
तट में हैं, चिरहरित पेड़ की कतारें,
सृष्टि का विधान समझना नहीं
आसान, कहीं दूर दूर तक
हैं बिखरे मरू प्रांतर,
और कहीं वृष्टि
का अति
अपनापन। दिल के अहाते खिले हैं
हरसिंगार उन्मुक्त, महक चले
फिर प्रतिबिंबित भावनाएं,
दर्पण के नेपथ्य में है
कहीं गुम, मेरा
अबोध
बचपन, फिर अलमस्त हो बिखरना
चाहे श्रृंखलित जीवन।
* *
- शांतनु सान्याल
07 सितंबर, 2016
उन्मुक्त जहान - -
रेशमी कोषों में बंद तितलियों को
उड़ान मिले, हर कोई है
यहाँ स्वप्नील राहों
का मुसाफ़िर,
मुट्ठी में
बंद जुगनुओं को खुला आसमान
मिले। निज परिधियों में रह
यूँ ही न घुट जाए कहीं
दम, इन सांसों को
उन्मुक्त फिर
कोई जहान
मिले।
इन सांप सीढ़ियों के खेल
का कोई यक़ीन नहीं,
कब, किसे और
कहाँ, नाज़ुक
ताश के
मकान मिले। बेशक़, तुम
मुमताज महल से
ज़रा भी कम
नहीं, ये
ज़रूरी
नहीं कि तुम्हें असल कोई
शाहजहान मिले। यूँ
तो उम्मीद पे
क़ायम है
ये तमाम रंगीन कायनात,
खिलते मुस्कुराते गुलों
को इक सच्चा
बाग़बान
मिले।
रेशमी कोषों में बंद तितलियों
को उड़ान मिले।
* *
- शांतनु सान्याल
उड़ान मिले, हर कोई है
यहाँ स्वप्नील राहों
का मुसाफ़िर,
मुट्ठी में
बंद जुगनुओं को खुला आसमान
मिले। निज परिधियों में रह
यूँ ही न घुट जाए कहीं
दम, इन सांसों को
उन्मुक्त फिर
कोई जहान
मिले।
इन सांप सीढ़ियों के खेल
का कोई यक़ीन नहीं,
कब, किसे और
कहाँ, नाज़ुक
ताश के
मकान मिले। बेशक़, तुम
मुमताज महल से
ज़रा भी कम
नहीं, ये
ज़रूरी
नहीं कि तुम्हें असल कोई
शाहजहान मिले। यूँ
तो उम्मीद पे
क़ायम है
ये तमाम रंगीन कायनात,
खिलते मुस्कुराते गुलों
को इक सच्चा
बाग़बान
मिले।
रेशमी कोषों में बंद तितलियों
को उड़ान मिले।
* *
- शांतनु सान्याल
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