27 अक्टूबर, 2016

सांध्य प्रदीप - -

वो एकाकी सांध्य प्रदीप हूँ जिसे
जला के किसी ने यूँ ही भूला
दिया। मुद्दतों से, इक
अदृश्य आग लिए
सीने में, जल
रहा हूँ मैं
किसी
अनबुझ प्यास की तरह आठ - -
पहर, ये और बात है कि
ज़माने ने, श्रेय सारा
पुरोहित को दे
दिया। और
मेरा
अस्तित्व रहा यथावत ऊसर भूमि
की तरह उपेक्षित, पतझर के
पत्तों से आच्छादित,
लेकिन इन्हीं मृत
पत्तों से होता
है सृष्टि
का
नव सृजन। जलना है मुझे यूँ ही -
अंतहीन अंधकार में सतत,
जब तक है मौजूद ये
पृथ्वी और गहन
आकाश।

* *
- शांतनु सान्याल




 

09 अक्टूबर, 2016

लुप्तप्रायः - -

आज भी उभरते हैं ईशान कोणीय मेघ, आज
भी गौरैया रौशनदान पर बनाते हैं नीड़,
आज भी दालान पर बिखरती है
चाँदनी और खिलते हैं
चंद्रमल्लिका भी,
हमेशा की
तरह।
किसी के रहने या न रहने से, कुछ फ़र्क़ नहीं
पड़ता, रंगमंच, यथावत वहीँ रहता है
अपनी जगह, केवल बदल जाते
हैं चरित्र और  परिदृश्य।
नेपथ्य में कहीं
उपेक्षित
पड़ी
होती हैं स्मृतियाँ, कुछ आईने पर पसरती - -
धूल। पुरातन पृष्ठों की गंध सोख लेती
हैं अभिलाष की सजलता, और
अहसास, क्रमशः बन जाते
हैं सूखे गुलाब के फूल,
किताबों के मध्य
लुप्तप्रायः।

* *
- शांतनु सान्याल


06 अक्टूबर, 2016

बेइंतहा - -

कहीं कोई ख़्वाब बिखरते बूंदों की तरह,
रात ढलने से पहले बस ज़रा, कुछ
एक लम्हों के लिए ही सही,
भिगो जाए रूह की
गहराइयाँ।
तुम हो मेरी सांसों में जज़्ब या ज़िन्दगी
में लौट आई है गुमशुदा, मौसम ए
बहार की इनायतें, साया है
तुम्हारा मेरे वजूद को
घेरे हुए, या खिलें
हैं आख़री -
पहर,
हरसिंगार की डालियाँ। मद्धम मद्धम - -
तुम्हारे निगाहों की रौशनी, और
वादियों में घुलता हुआ इक
संदली अहसास, तुम
हो मेरे पहलू में
या जिस्म
ओ जां
में छाए हुए हैं चाँद सितारों की सुरमयी
परछाइयाँ।

* *
- शांतनु सान्याल

 

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past