इस हक़ीक़त को झुठलाना नहीं आसां,
कि हर एक शख़्स है, चार दीवारों
के बीच कहीं न कहीं खुला
बदन, या और खुल
के यूँ कहें कि
बिलकुल
नंगा।
दरअसल, हम भी ऑक्टोपस से कुछ
कम नहीं, बदलते हैं लिबास और
नियत दोनों ही, ज़रुरत
के मुताबिक़, कभी
उथले किनारों
में छुप के
और कभी गहरी खाइयों में गुम होकर।
वही अंतहीन, शिकार और शिकारी
के बीच का चिर - परिचित
मायावी खेल, सिर्फ़
बदलते हैं
मंज़र।
क्रमशः अरण्य, समुद्र, पहाड़, जनमंच,
ख़्वाबगाह, भीड़ भरी नुक्कड़ या
टूटे घुंघरुओं के स्वर। घूमता
रहता है यूँ ही वक़्त के
आईने का झूमर।
और हर
तरफ बिखरे होते है रंग बिरंगे असली
नक़ली उतरन।
* *
- शांतनु सान्याल
कि हर एक शख़्स है, चार दीवारों
के बीच कहीं न कहीं खुला
बदन, या और खुल
के यूँ कहें कि
बिलकुल
नंगा।
दरअसल, हम भी ऑक्टोपस से कुछ
कम नहीं, बदलते हैं लिबास और
नियत दोनों ही, ज़रुरत
के मुताबिक़, कभी
उथले किनारों
में छुप के
और कभी गहरी खाइयों में गुम होकर।
वही अंतहीन, शिकार और शिकारी
के बीच का चिर - परिचित
मायावी खेल, सिर्फ़
बदलते हैं
मंज़र।
क्रमशः अरण्य, समुद्र, पहाड़, जनमंच,
ख़्वाबगाह, भीड़ भरी नुक्कड़ या
टूटे घुंघरुओं के स्वर। घूमता
रहता है यूँ ही वक़्त के
आईने का झूमर।
और हर
तरफ बिखरे होते है रंग बिरंगे असली
नक़ली उतरन।
* *
- शांतनु सान्याल