28 अक्टूबर, 2015

शाम ए चिराग़ - -

वो तमाम हसरतें, जो तुझसे
थीं वाबस्ता कभी, ढहते
पलस्तर में, आज
भी हमने
सजाए रखा है। बहुत मुश्किल
है दिल का यूँ खंडहर हो
जाना, इश्क़ ए अरकां *
को हमने दिल में
बसाए
रखा है। हर इक के बस में है -
कहाँ तामीर ए ताजमहल,
बेइंतहा चाहत को
हमने दिल से
लगाए
रखा है। मालूम है, हमें असर
ए तूफ़ां का मंज़र, फिर भी,
पागल हवाओं के आगे
दिले चिराग़ जलाए
रखा है।
* *
- शांतनु सान्याल
* अरकान - स्तम्भ
 

17 अक्टूबर, 2015

नाज़ुक हलफ़ - -

पुरअसरार धुंध सा है
बिखरा हुआ दूर
दूर तक,
रूह
परेशां मेरी तलाशे है
तुझे हो कर
बेक़रार।
धरती
और आसमां के बीच
है कोई मूक संधि,
या निगाहों की
चाँदनी
समेटे है मुझे बार बार।
तेरे पहलू से हैं बंधे
हुए सारे जहाँ
की मस्सरतें
क्यूँ कर
न जागे, मेरे दिल में
ख़्वाहिशें हज़ार।
कोई अनजान
सा नशा है
तेरी
आँखों में शायद, न
पीने का हलफ़
मुझसे टूट
जाता है
बार बार।
* *
- शांतनु सान्याल

 

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