06 अक्टूबर, 2016

बेइंतहा - -

कहीं कोई ख़्वाब बिखरते बूंदों की तरह,
रात ढलने से पहले बस ज़रा, कुछ
एक लम्हों के लिए ही सही,
भिगो जाए रूह की
गहराइयाँ।
तुम हो मेरी सांसों में जज़्ब या ज़िन्दगी
में लौट आई है गुमशुदा, मौसम ए
बहार की इनायतें, साया है
तुम्हारा मेरे वजूद को
घेरे हुए, या खिलें
हैं आख़री -
पहर,
हरसिंगार की डालियाँ। मद्धम मद्धम - -
तुम्हारे निगाहों की रौशनी, और
वादियों में घुलता हुआ इक
संदली अहसास, तुम
हो मेरे पहलू में
या जिस्म
ओ जां
में छाए हुए हैं चाँद सितारों की सुरमयी
परछाइयाँ।

* *
- शांतनु सान्याल

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past