न उसकी ख़ता, न कोई जुर्म था मेरा,
आग की फ़ितरत है लपकना, सो
जिस्म ओ जां सुलगा गया।
यूँ तो ज़िन्दगी थी
अपने आप में
ख़ुशहाल
बहोत, दीन दुनिया से बेख़बर, न जाने
क्यूँ कोई, इक अनजान सी कसक
सीने में यूँ बसा गया। हम
भी थे कभी रंगीन
ख़्वाबों के
मरकज़, चिराग़ ए महफ़िल, ये बात - -
और है कि किसी ने, रात ढलने से
बहोत पहले, यूँ वजूद मेरा
इक फूँक से मिटा
दिया । वो
तमाम गुल शबाना महकते रहे रात भर,
चाँद सितारों की मजलिस रही
आबाद रात भर, सब कुछ
थे अपने आप में
अपनी जगह,
सिर्फ़
निगाहों में किसी ने इक अजीब सा - -
ख़ालीपन बसा दिया।
* *
- शांतनु सान्याल
आग की फ़ितरत है लपकना, सो
जिस्म ओ जां सुलगा गया।
यूँ तो ज़िन्दगी थी
अपने आप में
ख़ुशहाल
बहोत, दीन दुनिया से बेख़बर, न जाने
क्यूँ कोई, इक अनजान सी कसक
सीने में यूँ बसा गया। हम
भी थे कभी रंगीन
ख़्वाबों के
मरकज़, चिराग़ ए महफ़िल, ये बात - -
और है कि किसी ने, रात ढलने से
बहोत पहले, यूँ वजूद मेरा
इक फूँक से मिटा
दिया । वो
तमाम गुल शबाना महकते रहे रात भर,
चाँद सितारों की मजलिस रही
आबाद रात भर, सब कुछ
थे अपने आप में
अपनी जगह,
सिर्फ़
निगाहों में किसी ने इक अजीब सा - -
ख़ालीपन बसा दिया।
* *
- शांतनु सान्याल
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