30 मार्च, 2016

कटुसत्य - -

इस हक़ीक़त को झुठलाना नहीं आसां,
कि हर एक शख़्स है, चार दीवारों
के बीच कहीं न कहीं खुला
बदन, या और खुल
के यूँ कहें कि
बिलकुल
नंगा।
दरअसल, हम भी ऑक्टोपस से कुछ
कम नहीं, बदलते हैं लिबास और
नियत दोनों ही, ज़रुरत
के मुताबिक़, कभी
उथले किनारों
में छुप के
और कभी गहरी खाइयों में गुम होकर।
वही अंतहीन, शिकार और शिकारी
के बीच का चिर - परिचित
मायावी खेल, सिर्फ़
बदलते हैं
मंज़र।
क्रमशः अरण्य, समुद्र, पहाड़, जनमंच,
ख़्वाबगाह, भीड़ भरी नुक्कड़ या
टूटे घुंघरुओं के स्वर। घूमता
रहता है यूँ ही वक़्त के
आईने का झूमर।
और हर
तरफ बिखरे होते है रंग बिरंगे असली
नक़ली उतरन।

* *
- शांतनु सान्याल


26 मार्च, 2016

अदना सा - -

हर तरफ है इक अजीब सी -
रक़ाबत, इक अजीब सी
फ़र्क़ गुज़ारी, ज़ेर ए
ज़मीं हो जैसे
नीम
सुलगता आग कोई, ये शहर
अब न रहा मिशाल ए
बिरादरी,कि डर सा
लगता है मुझे
शाम ढलते,
अपनी
ही गली में बेख़ौफ़ हो के - - -
निकलना, कहीं लूट
न ले कोई दस्त
ए आशना
मुझको।
वैसे ऊँची मीनारों से झिरती हैं
कुछ सब्ज़ रौशनी, कुछ
झाँकते  हैं शामे
चिराग़ मंदिरों
से भी,
फिर भी न जाने क्यों, इन -
मनहूस राहों से दहशत
सी होती है, कहीं
कोई न पूछ
ले मुझसे
सबूत ए मज़हब, कैसे बताऊँ
कि मैं सिर्फ़ इक अदना
सा इंसान हूँ।

* *
- शांतनु सान्याल

13 मार्च, 2016

सुदूर कहीं - -

तलहटी में फिर खिले हैं टेसू
और लद चली हैं महुए
की डालियाँ।
क्रमशः
जुड़ से चले हैं टूटे हुए स्लेट,
फिर खोजता है दिल
टूटे हुए कुछ
रंगीन
कलम, न जाने कौन चुपके
चुपके फिर सजा चला है
पतझर की तन्हाइयां।
दूर टेरती है
टिटहरी
शायद कहीं आज भी है मौजूद,
उसके सजल आँखों के
सोते, फिर बुलाती
हैं मुझे सुदूर
गुमशुदा
यादों की गहराइयां। तलहटी में
फिर खिले हैं टेसू और लद
चली हैं महुए की
डालियाँ।

* *
- शांतनु सान्याल 

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