20 दिसंबर, 2015

अब फ़र्क़ नहीं पड़ता - -

हमने ख़ुद ही क़बूला है जुर्म अपना
अब फ़र्क़ नहीं पड़ता, सज़ा ए
मौत पे मुहर किस किस
की है। ये दस्तबंद,
ये ज़ंजीर ए
आहन,*
बदल नहीं सकते मेरी वाबस्तगी ए
रूह उनसे, अब फ़र्क़ नहीं पड़ता
ख़ारिज़ ए जन्नत पे असर
किस किस की है।
हमने तो सब
कुछ पा
लिए उन्हें तहे दिल उतारने के बाद,
अब कोई ख़्वाहिश नहीं बाक़ी
इश्क़ उनका पाने के बाद,
अब ये धूसर ज़मीं ही
लगती है हमें
दिलो जां
से ख़ूबसूरत कहीं, अब फ़र्क़ कुछ भी
नहीं पड़ता, हमें बर्बाद करने में
ये पोशीदा ज़हर किस
किस की है। सज़ा
ए मौत पे मुहर
किस किस
की है।

* *
- शांतनु सान्याल
* लोहा
  

10 दिसंबर, 2015

अपनी धरती - -

कितने सल्तनत बने और
बिखरे इसी ज़मीं की
गोद में, लेकिन
इसका
आँचल कभी सिमटा नहीं।
ये माँ है अंतहीन
दुआओंवाली,
इसे
जिसने भी ठुकराया, चैन
से सो न पाया उम्र भर
कभी। चाहे तुम
जहाँ भी
जाओ,
सहरा से किसी गोशा ए
फ़िरदौस में, लौट
आओगे इक
दिन,
इसी माँ के दामन ए
चाक में। ये ज़मीं
है फ़रिश्तोंवाला,
यहाँ हर चीज़
है इबादत
के क़ाबिल, यहाँ ज़िन्दगी
उभरती है संग ओ
राख में।

* *
- शांतनु सान्याल 

06 दिसंबर, 2015

सम्पूर्ण जन गण मन - - राष्ट्रीय गीत
.
गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर भारत के बँगला साहित्य के शिरोमणि कवि थे.
उनकी कविता में प्रकृति के सौंदर्य और कोमलतम मानवीय भावनाओं का उत्कृष्ट चित्रण है.
"जन गण मन" उनकी रचित एक विशिष्ट कविता है जिसके प्रथम छंद को हमारे राष्ट्रीय गीत होने का गौरव प्राप्त है.
बंगला मूल शब्दार्थ *

जन गण मन - -
जन गण मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा
द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मागे
गाहे तव जय गाथा
जन गण मंगल दायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे

अहरह तव आह्वान प्रचारित
शुनि तव उदार वाणी
हिन्दु बौद्ध शिख जैन
पारसिक मुसलमान खृष्टानी
पूरब पश्चिम आशे
तव सिंहासन पाशे
प्रेमहार हय गाँथा
जन गण ऐक्य विधायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे

*(अहरह: निरन्तर; तव: तुम्हारा
शुनि: सुनकर
आशे: आते हैं
पाशे: पास में
हय गाँथा: गुँथता है
ऐक्य: एकता )
पतन-अभ्युदय-बन्धुर-पंथा
युगयुग धावित यात्री,
हे चिर-सारथी,
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माझे
तव शंखध्वनि बाजे,
संकट-दुख-त्राता,
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे

*(अभ्युदय: उत्थान; बन्धुर: मित्र का
धावित: दौड़ते हैं
माझे: बीच में
त्राता: जो मुक्ति दिलाए
परिचायक: जो परिचय कराता है )
घोर-तिमिर-घन-निविड़-निशीथे
पीड़ित मुर्च्छित-देशे
जाग्रत छिल तव अविचल मंगल
नत-नयने अनिमेष
दुःस्वप्ने आतंके
रक्षा करिले अंके
स्नेहमयी तुमि माता,
जन-गण-दुखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे

*(निविड़: गाढ़ा
छिल: था
अनिमेष: अपलक
करिले: किया; अंके: गोद में )

रात्रि प्रभातिल उदिल रविछवि
पूर्व-उदय-गिरि-भाले,
गाहे विहन्गम, पुण्य समीरण
नव-जीवन-रस ढाले,
तव करुणारुण-रागे
निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा,
जय जय जय हे, जय राजेश्वर,
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
* (प्रभातिल: प्रभात में बदला; उदिल: उदय हुआ )




05 दिसंबर, 2015

अद्भुत हिलोर - -

आधी रात, जब निस्तब्ध धरा
करे तारों से बात, सुनसान
सड़कों में घूमे कोई
ख़्वाबों का
फेरीवाला। आकाशगंगा तब
गलबहियां डाले ले जाना
चाहे मुझे, बहुत दूर,
जहाँ रहता है
इक
सतरंगी फिरकीवाला। उस -
इंद्रधनुषी हिंडोले में
जीवन पाए
नव
अनुभूति, तन - मन में उठे
तब इक अद्भुत हिलोर
करे इंद्रजाल सा
कोई नयन -
मदिरावाला ।
* *
- शांतनु सान्याल



01 दिसंबर, 2015

हज़ार बार - -

न कर दिल के दरवाज़े
 बंद, यूँ बेरुख़ी से
दोस्त, बहोत
मुश्किल
से कभी दस्तक ए बहार
होते हैं। यूँ तो सरसरी
निगाहों की कमी
नहीं जहां में,
लेकिन
बहोत कम तीर ए नज़र
दिल के पार होते हैं।
उनसे मिल कर
अक्सर
तिश्नगी बढ़ जाती है
बारहा, जो ख़ामोश
रह कर भी
गहरे,
इश्क़ ए तलबगार होते
हैं। यूँ तो, वो नहीं
मुख़ातिब
मुझसे,
फिर भी, न जाने क्यूँ वो
मेरे पहलू में इक नहीं,
हज़ार बार
होते हैं।

* *
- शांतनु सान्याल 


27 नवंबर, 2015

* राब्ता नफ़स - -

बुलाती हैं मुझे साँझ ढलते
वो ख़ामोश निगाहें,
अपने आप मुड़
जाती हैं
सिम्त उसके ज़िन्दगी की
राहें। बहोत अँधेरा है
उस दहलीज़ के
पार फिर
भी, न जाने क्यों जज़्बात
मेरे उसी में, यूँ ही खो
जाना चाहें। 
वो तमाम रिश्ते हमने तोड़
दिए जो थे महज़
रस्मी, इक
राब्ता
नफ़स है बाक़ी चाहे तो वो
निभा जाऐं।
* *
- शांतनु सान्याल
* राब्ता नफ़स - - रूह से रिश्ता

26 नवंबर, 2015

काश - -

राज़ ए तबस्सुम न पूछ
हमसे ऐ दोस्त,
अनकहे
अफ़सानों के उनवां नहीं
होते। यूँ तो बिखरे
थे हर तरफ
रौशनी के
बूँद,
हर अक्स लेकिन नीले
आसमां नहीं होते।
न जाने क्या था
उनकी चाहतों
का
पैमाना,हर गुज़रती - -
आहट दश्त ए
कारवां
नहीं
होते। उनकी क़दमों की
आहट ने ताउम्र
सोने न दिया,
काश, ये
मेरे
दिल फ़रेब अरमां नहीं -
होते।
* *
- शांतनु सान्याल
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09 नवंबर, 2015

वजूद का परिंदा - -

बुझाने में यूँ तो उसने, कोई
कसर न रखी थी बाक़ी,
फिर भी बर अक्स
तुफ़ां के जले हैं
चिराग़
लहरा कर। बहोत संगे जान
है मेरे वजूद का परिंदा,
हर हाल में उड़
जाता है
मजरूह पंख फहरा कर। न
आज़मा मुझे यूँ अपने
ख़ुद अफ़रीदा*
मयार में,
कि रूह मेरी निकल जाती है
आसमां का सीना गहरा
कर।
* *
  - शांतनु सान्याल
*अफ़रीदा - रचित
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06 नवंबर, 2015

लौटते क़दम - -

फिर घेरती हैं शाम ढलते बचपन की यादें,
वो झील का किनारा, वो टिटहरी की
टेर, और दूर पहाड़ी की ओट
में सूरज का धीरे से
ओझल हो
जाना।
फिर कहीं से तुम आते हो बन कर अरण्य
गंध, सुरमयी अंधेरा फिर खोलता है
अतीत के अनछुए अनुरागी
पल और मैं हमेशा की
तरह करता हूँ
तलाश,
किसी खोई हुई परछाई को। फिर गहराती
है रात लिए सीने में अंतहीन सवाल,
फिर कोई मेरी विनिद्र आँखों
में रख जाता है तृषित
कपास, और मैं
क्रमशः
लौट जाता हूँ सधे क़दमों से बहोत दूर, जहाँ
कोई नहीं होता मेरे आसपास।
* *
- शांतनु सान्याल

 

28 अक्तूबर, 2015

शाम ए चिराग़ - -

वो तमाम हसरतें, जो तुझसे
थीं वाबस्ता कभी, ढहते
पलस्तर में, आज
भी हमने
सजाए रखा है। बहुत मुश्किल
है दिल का यूँ खंडहर हो
जाना, इश्क़ ए अरकां *
को हमने दिल में
बसाए
रखा है। हर इक के बस में है -
कहाँ तामीर ए ताजमहल,
बेइंतहा चाहत को
हमने दिल से
लगाए
रखा है। मालूम है, हमें असर
ए तूफ़ां का मंज़र, फिर भी,
पागल हवाओं के आगे
दिले चिराग़ जलाए
रखा है।
* *
- शांतनु सान्याल
* अरकान - स्तम्भ
 

17 अक्तूबर, 2015

नाज़ुक हलफ़ - -

पुरअसरार धुंध सा है
बिखरा हुआ दूर
दूर तक,
रूह
परेशां मेरी तलाशे है
तुझे हो कर
बेक़रार।
धरती
और आसमां के बीच
है कोई मूक संधि,
या निगाहों की
चाँदनी
समेटे है मुझे बार बार।
तेरे पहलू से हैं बंधे
हुए सारे जहाँ
की मस्सरतें
क्यूँ कर
न जागे, मेरे दिल में
ख़्वाहिशें हज़ार।
कोई अनजान
सा नशा है
तेरी
आँखों में शायद, न
पीने का हलफ़
मुझसे टूट
जाता है
बार बार।
* *
- शांतनु सान्याल

 

24 सितंबर, 2015

गिरह पुराने - -

न खोल गिरह पुराने
कुछ दर्द अनजाने,
रहने दे यूँ ही
गुमशुदा
अनकहे अफ़साने। उन
लोगों की थी शायद
अपनी मजबूरी
कभी गले
से लगाया, कभी लगे
ठुकराने। बेशक
हर कोई
यहाँ,
है अपनी धुरी से बंधा,
इक ज़रा सी बात
पर बनते हैं
हज़ार
 बहाने। न मैं नीलकंठ
बन सका, और न
तू  ही मीरा
चन्दन
और भुजंग हैं यहाँ मित्र
बहुत पुराने। न खोल
गिरह पुराने कुछ
दर्द अनजाने।

* *
- शांतनु सान्याल

08 सितंबर, 2015

आप साथ हो लिए - -

हम यूँ ही अपने आप में
 रूह ए  जज़्ब थे,
न जाने
किस मोड़ पे, आप साथ
हो लिए। सुरमयी
कोई शाम
थी या
मख़मली रात, न जाने -
किस पल दिल
अपना हम
खो
दिए। यूँ तो कम न थे
ज़िन्दगी में दर्द
ओ ग़म,
फिर
न जाने क्यूँ दर्द नया -
सीने में बो लिए।
अजीब सी
कैफ़ियत
है दिल
की आजकल कभी यूँ
ही हंस लिए कभी
बेवजह रो
लिए।

* *
- शांतनु सान्याल

06 सितंबर, 2015

निगाहे नूर - -

मेरी चाहतों को काश
एक मुश्त सुबह
की धूप
मिलती, यक़ीन मानो
मेरी ज़िन्दगी भी
फूलों से कम
न होती।
ताहम कोई शिकायत
नहीं इस कमतर
रौशनी के लिए,
इक ज़रा
निगाहे
नूर तेरी काफ़ी है मेरी
ज़िन्दगी के लिए।
* *
- शांतनु सान्याल
 

30 अगस्त, 2015

फिर कोई होगा शिकार - -

कोई तेज़ रफ़्तार ट्रेन गुज़री है अभी अभी। 
पटरियों में कुछ ताज़े, काँपते ज़ख्म
हैं अभी तलक ज़िंदा। वादियों
में फिर उभरा है चाँद,
फिर कोई होगा
शिकार
खुली चाँदनी में। न देख मुझे आज की रात
यूँ क़ातिल अंदाज़ में। इक तिलिस्म
सा है तेरी पुरअसरार मुहोब्बत 
में, कि जो भी फँस जाए
उम्रभर न निकल
पाए तेरी
निगाह ए जाल से। तुझे ख़ुद ये मालूम नहीं
कि तेरे दम से है रौशन नीला फ़लक
दूर तक, और ज़मीं है मुबारक
तेरे रुख़ ए जमाल से।

* *
- शांतनु सान्याल
art of dang can 
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28 अगस्त, 2015

जाते जाते - -

कुछ लम्हात यूँ ही और
नज़दीक रहते, कुछ
और ज़रा जीने
की चाहत
बढ़ा
जाते। ताउम्र जिस से
न मिले पल भर
की राहत,
काश,
कोई लाइलाज मर्ज़ 
लगा जाते। किस
मोड़ पे फिर
रुकेगी
फ़स्ले बहार, काश, जाते
जाते अपना पता
बता जाते।
तुम्हारे
जाते ही घिर आए
बादलों के साए,
मन - मंदिर
में कोई
साँझ दीया जला जाते।
कुछ अनमनी सी हैं
रातरानी की
डालियाँ,
हमेशा
की तरह गंधकोशों में
ख़ुश्बू बसा
जाते। 

* *
- शांतनु सान्याल
  

05 अगस्त, 2015

उस मोड़ पे कहीं - -

मैं आज भी मुंतज़िर तन्हा खड़ा हूँ
उसी मोड़ पर, जहाँ मधुमास
ने लौटने का कभी वादा
किया था, हर एक
चीज़ है वहीँ
अपनी
जगह यथावत, लेकिन कब सूख
गई सजल भावनाओं की ज़मीं,
यक़ीन जानो, मुझे कुछ
भी ख़बर नहीं।
झरते हुए
गुलमोहर ने मुझ से कहा अब लौट
भी जाओ अपने घर कि, आईने
से बेदिली ठीक नहीं, गुज़रा
हुआ ज़माना, था कोई
रंगीन बुलबुला,
जो दिल से
उठा और हवाओं में कहीं हो गया -
लापता, अब भीगे साहिल में
नहीं बाक़ी क़दमों के निशां,
ख़ुद फ़रेबी से अब
क्या फ़ायदा।

* *
- शांतनु सान्याल
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03 अगस्त, 2015

नेपथ्य में कहीं - -

नेपथ्य में कहीं, कोई तो है
खड़ा अदृश्य,जो
मझधार में
भी
जीने की आस बढ़ा जाए।
मानो या न मानो,
अपना अपना
है ख़्याल,
पत्थरों
में कहीं है वो, या मिले
शिफ़र हाल, हर
हाल में
लेकिन वो ज़िन्दगी सजा
जाए। नेपथ्य में कहीं,
कोई तो है खड़ा
अदृश्य,
जो मझधार में भी जीने
की आस बढ़ा जाए।
दूर दूर तक
फैली है
उसकी निगाहों की रौशनी,
कोई चीज़ नहीं पोशीदा,
न कोई बात
अनसुनी,
हज़ार
पर्दों में भी वो अपनी झलक
दिखा जाए। नेपथ्य में
कहीं, कोई तो है
खड़ा
अदृश्य,जो मझधार में भी
जीने की आस बढ़ा
जाए।

* *
- शांतनु सान्याल
 

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23 जुलाई, 2015

राज़ ए गहराई - -

न जाने कैसा है वो शीशा
ए अहसास, नज़र
हटते ही होता
है टूटने
का गुमान। क़रीब हो जब
तुम, लगे सारा
कायनात यूँ
हथेली
में बंद किसी जुगनू की -
मानिंद, ओझल होते
ही बिखरता है पल
भर में गोया
तारों भरा
नीला
आसमान। कई बार देखा
है उसे दिल के आईने
में,बारहा तलाशा
है उसे चश्म
ए समंदर
में यूँ
दूर तक डूब कर, फिर भी
इस इश्क़ ए तलातुम
में, राज़ ए गहराई
जानना नहीं
आसान।

* *
- शांतनु सान्याल  


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21 जुलाई, 2015

शब ए इन्तज़ार - -

शब ए इन्तज़ार ढल गई,
दूर तक बिखरे पड़े हैं
बेतरतीब, टूटे
हुए ख़्वाब।
कुछ उनींदी आँखों की
वीरान बस्तियाँ,
और कुछ
कोहरे
में लिपटी ख़मोशियाँ।
लगा के आग,
ख़ुद अपने
अंजुमन

में कि
हम ढूंढते हैं बारिश,
भरे सावन में।
तमाम रात
जलते
बुझते रहे मेरे जज़्बात 
उम्र से लम्बी थी
कहीं कल 
बरसात
की
रात। हर इक  आहट
में टूटती रही
जंज़ीर ए
नफ़स,
हर
इक पल बिखरते रहे
इश्क़ ए गुलाब।
शब  ए 
इन्तज़ार ढल गई, दूर
तक बिखरे पड़े हैं
बेतरतीब,
टूटे
हुए ख़्वाब - -

* *
- शांतनु सान्याल 

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शब - रात
 

11 जुलाई, 2015

फिर मिले न मिले - -

फिर खुले न खुले, दर
ए ज़िन्दां किसे
ख़बर, अभी
तो भीग
लें इन बारिशों में खुल
कर, न रोक ख़ुद को
यूँ चहार दिवारी
के अंदर।
मवाली हवाओं के संग
उड़ जाएं सभी
हिजाब,
दिल चाहे होना आज
गहराइयों तक
तर बतर।
इल्ज़ाम
कोई, ग़ैर इख़्लाक़ी - -
का लगे तो लगे,
अभी तो जीलें
खुली
हवाओं में यूँ ही बेख़बर।
फिर मिले न मिले,
ज़िन्दगी को
ये नायाब
पल,
क्यों न रोक लें इन्हें - -
अपनी निगाहों में
ऐ मेरे हम -
सफ़र।

* *
- शांतनु सान्याल

 
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06 जुलाई, 2015

ख़ामोशी - -

उस ख़ामोशी में है कोई
मुक्कमल जज़्बात
या सदियों से
ठहरा
हुआ कोई तूफ़ान। इक
कहानी जिसे लोग
दोहराते हैं
बारम्बार
फिर भी जो पड़ा रहता है 

यूँ ही बिलाउन्वान।
ज़िन्दगी की है
अपनी ही
अलग
दिलकशी, कभी इक बूंद
भी नहीं मय्यसर
लबों को,और
कभी
सैलाबी आसमान। उन
पोशीदा लकीरों की
गहराई, अब
तक किसी
को न
समझ आई, हर तरफ
है इक पुरअसरार
ख़ुश्बू, लेकिन
मुख़ातिब
नहीं 

कोई फूल और नहीं - -
नाज़ुक कोई 
गुलदान।

* *
- शांतनु सान्याल 

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29 जून, 2015

रात की ढलान में कहीं - -

आख़री पहर, जब झर
गए सभी पारिजात,
लापता चाँद
था रात
की ढलान में कहीं,
उन्हीं पलों में
ले गए
तुम सुरभित रूह मेरी,
अब प्यासा
जिस्म
भटके है बियाबां में
कहीं, यूँ तो
चलना
था मुझे भी उजालों
के हमराह,
लेकिन
खो गए अक्स, वक़्त
ए कारवां में कहीं,
वो चेहरे जो
घूमते
रहे मेरे अतराफ़ - - -
उम्रभर, कोहरे
के साथ
घुल से गए बिहान में
कहीं, आख़री पहर,
जब झर गए
सभी
पारिजात, लापता चाँद
था रात की ढलान
में कहीं।

* *
- शांतनु सान्याल

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christina nguyen art

27 जून, 2015

राह ए हक़ में - -

हर इक नज़र को
है किसी न
किसी
की तलाश,कभी
कोई भटके है
धुंधभरी
वादियों में दर
बदर, कभी
कोई
मिल जाए यूँ ही
दहलीज़ के
आसपास।
फ़रेब ए नज़र है
बाशक्ल ओ
बेशक्ल
के दरमियां, राह
ए हक़ में
लेकिन
न कोई आम, न
कोई ख़ास।

* *
- शांतनु सान्याल
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art of paul landry

21 जून, 2015

अल्बम ए ज़िन्दगी - -

अल्बम ए ज़िन्दगी, चाहे जितना छुपाना
चाहो, गाहे - बगाहे यादों के कतरन
फ़िसल जाते हैं अपने आप।
उन धुंध भरी राहों को
बारहा मैंने भूलना
चाहा लेकिन,
ख़ुशियों
में भी, ये नामुराद अश्क, निकल आते हैं
अपने आप। कुछ लिफ़ाफ़े बाहर से
होते हैं बहोत दिलकश, ये और
बात है, कि खोलते ही उसे
गुमशुदा दर्द मिल
जाते हैं
अपने आप। सही परवरिश या हवा, पानी
ओ धूप का रोना है बेमानी, जिन्हें
खिलना हो, हर हाल में वो
खिल जाते हैं अपने
आप।

* *
- शांतनु सान्याल
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Albert Handell Paintings

20 जून, 2015

बिखर जाने दे - -

कांच के बूंदों की तरह टूट
कर मुझे बिखर जाने
दे, कोई अधूरी
ख़्वाहिश
न लगे चुभता सा किनारा,
उफनती नदी की
मानिंद फिर
मुझे निखर
जाने दे,
इस ख़ानाबदोश बारिश का
कोई अपना वतन नहीं,
रातभर के लिए ही
सही मेरी
आँखों
में ठहर जाने दे, न जाने -
ज़माने में है क्यूँ,
इतनी सारी
छटपटाहट,
चाँद को
ज़रा और मेरे सीने में हौले
से उतर जाने दे,आईना
है मुन्तज़िर इक
मुद्दत से मुझे
देखने के
लिए,रात के अंधेरों से ज़रा
ज़िन्दगी को और उभर
जाने दे, कांच के
बूंदों की तरह
टूट
कर मुझे बिखर जाने दे - -

* *
- शांतनु सान्याल
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dae chun kim painting

18 जून, 2015

उसने कहा था - -

उसने कहा था, मेरी वजह -
से है लुत्फ़ ए सावन,
वरना इस
दहकते
बियाबां में कुछ भी नहीं। -
उसने कहा था, मुझ
से है तमाम
आरज़ूओं
के चिराग़ रौशन, वरना इस
बुझते जहां में कुछ
भी नहीं। यूँ
तो हर शै
आज  भी  है अपनी जगह -
मौजूद, सही सलामत,
वही आसमान
वही चाँद
सितारे, फूलों में वही रंग सारे,
सावन में आज भी है वही
बरसने की दीवानगी,
नदियों में वही
अंतहीन
किनारों को जज़्ब करने की -
तिश्नगी, फिर भी  न
जाने क्यूँ उसने
कहा था
मेरे बग़ैर इस गुलिस्तां में कुछ
 भी नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल
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art by david chefitz

16 जून, 2015

धूप संदली - -

यहाँ उम्मीद के मानी कुछ भी
नहीं ये सिर्फ़ नाज़रीं हैं,
देख शहर कोतवाल
हौले से निकल
ही जाएंगे।
तनहा ही सही गुज़रने दे मुझे
बेख़ौफ़ यूँ ही वस्त राह,
कहीं न कहीं, किसी
मोड़ पे गुमनाम
इन्क़लाबी
मिल ही जाएंगे। मज़मा ए शहर
मुबारक हो तुझ को बहोत
दूर है कहीं मेरी नन्ही
सी इक दुनिया,
जुगनू ओ
तितलियाँ बसते हैं जहाँ, आज -
नहीं तो कल बर्फ़ीले चादर
वादियों के पिघल ही
जाएंगे। फिर
खिलेगी
धूप संदली, माँ की दुआओं वाली,
फिर रूठे हुए बच्चे चाँद का
अक्स थाली में देख,
मासूमियत
हँसी के
साथ बहल ही जाएंगे।  - -

* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/


art by david cheifetz

उजाड़ हो कर - -

सिर्फ़ लब  छू लेने भर से
रूह नहीं भीग जाते,
उजाड़ हो कर
तुम्हें और
बरसना होगा, हर इक बूंद
की अपनी ही अहमियत
होती है, बादल
बनने से
पहले तुम्हें और दहकना
होगा। अभी तो कश्ती
है मझधार में
कहीं, न
जाने कितनी देर साहिल
पे तुम्हें और ठहरना
होगा, इतना
आसां भी
नहीं जीस्त का शीशी ए
अतर हो जाना, हर
हाल में तुम्हें
देर तक
और महकना होगा। इस
शहर के अपने अलग
हैं दस्तूर, सूरज
निकलने से
पहले
यूँ ही काँटों की सेज पे - -
तुम्हें और तड़पना
होगा। सिर्फ़
लब  छू
लेने भर से रूह नहीं भीग
जाते, उजाड़ हो कर
तुम्हें और
बरसना होगा।

* *
- शांतनु सान्याल
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art by richard schmid

14 जून, 2015

कोई पैग़ाम मिले - -

कुछ इस तरह से छलकें मेरी
आँखें कि किसी को कुछ
पता भी न चले और
दर्द ए दिल को
आराम
मिले। कहाँ से लाएं वो यक़ीं,
जो तुझे ले आए, फिर
मेरी बज़्म की
जानिब,
ख़ानाबदोश ज़िंदगी को इस
बहाने ही सही, जीने का
अहतराम मिले।
यूँ तो हर
कोई था मेरा तलबगार इस
शहर में, लेकिन मेरी
सांसों पे इक
तेरे सिवा
कोई और मुस्तहक़ न था -
चले भी आओ किसी
बहाने कि डूबती
सांसों को
पल दो पल ही सही, उभरने
का कोई पैग़ाम मिले।

* *
- शांतनु सान्याल
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karen mathison schmidt painting.jpg

11 जून, 2015

असमाप्त अन्तर्यात्रा - -

 उस अंतिम छोर में, कोई प्रतीक्षारत
नहीं और इस मोड़ में भी, मैं
रहा सदैव एकाकी, बूढ़ा
बरगद, सिमटती
नदी, विलीन
हुए सब
सांध्य कोलाहल, उड़ गए सुदूर सभी
प्रवासी पाखी। पिघली है बर्फ़
वादियों में, या फिर दिल
में जगी है कोई
आस पुरानी,
गोधूलि
बेला, सिंदूरी आकाश, तुलसी तले - -
माटी - प्रदीप, वही अनवरत
झुर्रियों से उभरती हुई
तेरी मेरी जीवन
कहानी।
वो तमाम स्मृति कपाट अपने आप
जब हो चलें बंद, तब अंतर पट
खोले नव दिगंत द्वार,
निरंतर असमाप्त
अन्तर्यात्रा !
कोई न
था एक मेरे अलावा उस भूल - भुलैया
के उस पार।

* *
- शांतनु सान्याल
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dusan djukaric art

09 जून, 2015

वीरान रहगुज़र - -

न कर इतनी मुहोब्बत कि पंछी भूल
जाए उड़ान भरना, कर ले ख़ुद
को ख़ुद तक ही मनहसर,*
और बन जाए ये
जिस्म महज़
एक
ख़ूबसूरत पिंजर। सामने हो खुला - -
आसमान, चाँद, सितारे, और
आकाशगंगा, बेबस रूह
तलाशे लेकिन टूटे
पंख अपना।
रंगीन
सपनों के शल्क लिए ज़िन्दगी न बन
जाए कहीं बंजर। ज़रूरत से
ज़्यादा की चाहत न
कर दे उजाड़
कहीं
दिलों की बस्ती,  दूर तक न रह जाएँ
कहीं वीरान रहगुज़र। न कर
इतनी मुहोब्बत कि पंछी
भूल जाए उड़ान
भरना, कर
ले ख़ुद
को ख़ुद तक ही मनहसर, - - - - - -

* *
- शांतनु सान्याल
* सिमित
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

07 जून, 2015

इक अजनबी - -

न उजाड़ यूँ लम्हों में जज़्बात ए शहर,
इक ज़िन्दगी भी कम है इसे
जगमगाने के लिए।
क़दमों में जड़े
हों ज़ंजीर
और
नंगी पीठ पे उभरे दाग़ ए चाबुक, ये -
सौगात भी कम हैं मुहोब्बत में,
यूँ हद से गुज़र जाने के
लिए। वो कोई
इंतहाई
दीवाना था या ख़ालिस रूह, यूँ उठाए
फिरता रहा काँधे पे, पोशीदा
सलीब अपना, किसी
ने उसे नहीं
देखा,
न किसी ने पहचाना ही, लहूलुहान वो
गुज़रता रहा भीड़ में तनहा,
इंसानियत की सज़ा
पाने के लिए।
न उजाड़
यूँ लम्हों में जज़्बात ए शहर, इक - -
ज़िन्दगी भी कम है इसे
जगमगाने के लिए।
* *
- शांतनु सान्याल
 http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

04 जून, 2015

गुमशुदा नदी - -

चलो फिर आज, सजल खिड़कियों
में कुछ जलरंग तसवीर उकेरें,
कुछ रंग जो छूट गए
अतीत के पन्नों
में कहीं,
चलो फिर आज, धूसर आकाश में
यूँ ही स्मृति अबीर बिखेरें।
कुछ काग़ज़ के नाव
रुके रुके से हैं,
हलकी
बारिश की चाह लिए, कुछ नन्हें -
नन्हें, गगन - धूलि फिर हैं
उभरने को बेक़रार,
चलों फिर खेलें
नदी -पहाड़
या लुक - छुप की वो छोटी छोटी -
मासूम अय्यारियां, फिर
सदियों से गुमशुदा
नदी है छलकने
को तैयार ।

* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

26 मई, 2015

चलो साँझा कर लें - -

ये अंधेरे - उजालों के हैं खेल सारे,
कभी चाँद रात लगे फीकी -
फीकी और कभी पहलू
में उतरें सितारे।
अजीब सी
है ये उतरती दरिया किस ओर जा
मुड़े कहना नहीं आसां, कभी
तुम हो इस तरफ़, और
कभी हम दूर उस
किनारे।
यूँ ही कश्मकश में न गुज़र जाए -
ये ज़िन्दगी, चलो साँझा कर
लें कुछ दर्द हमारे कुछ
ग़म तुम्हारे।
वक़्त से
जीतना है बहोत मुश्किल, तक़दीर
से शिकवा लाज़िम नहीं,चलता
रहे यूँ ही आँख - मिचौनी
कभी यूँ ही जीता
दो मुझ को भी
झूठमूठ
ही, बचपन वाले वही दूधभात के
सहारे। ये अंधेरे - उजालों
के हैं खेल सारे,
कभी चाँद
रात लगे फीकी - फीकी और कभी
पहलू में उतरें सितारे।

* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/


23 मई, 2015

अधूरापन - -

अधूरापन है ज़िन्दगी की हक़ीक़त
यहाँ कोई शख़्स कामिल नहीं,
यूँ तो आज़माइशों की
अपनी अलग है
ख़ूबसूरती,
तुझ से मिल कर दिल को बहोत ही
सुकून मिलता है, फिर भी ये
दोस्त, तू मेरी मंज़िल
नहीं, बारहा
उठती
गिरती हैं जज़्बात की लहरें कुछ -
दूर तक जातीं भी ज़रूर हैं,
जिसे सोचते रहे हम
इक आख़री
किनारा,
क़रीब पहुँचने पे पता चला कि वो
है महज इक तैरता जज़ीरा,
समंदर का कोई
साहिल नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

19 मई, 2015

अपनापन - -

नाम - निहाद थे वो तमाम दावे उनके,
कोई किसी के लिए नहीं है मुंतज़िर
यहाँ, जो छूट गए भीड़ में कहीं,
रफ़्ता - रफ़्ता वक़्त उन्हें
इक दिन भूला
देता है।
न बढ़ा ख़ुलूस ए शिद्दत इस क़दर मेरे
दोस्त, कि निगाहों में बेवक़्त ही
अब्र छा जाएँ, ये अपनापन
है बहोत जानलेवा,
हँसते - हँसते
इक दिन
बहोत रूला देता है। जो छूट गए भीड़
में कहीं, रफ़्ता - रफ़्ता वक़्त
उन्हें इक दिन भूला
देता है।

* *
- शांतनु सान्याल
 http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

15 मई, 2015

अनबुझ प्यास - -

कहाँ ज़िन्दगी में, हर ख़्वाब
को हक़ीक़त की ज़मीं
मिलती है,
कोई भी नहीं मुकम्मल इस
जहां में, कुछ न कुछ
तो कमी
रहती है,कभी भरे बरसात में
भी रहती है, सदियों
की अनबुझी
प्यास,कभी इक बूँद के लिए
सुलगती साँस थमी
रहती  है,
न बढ़ा ख़्वाहिशों की फ़ेहरिश्त
इस तरह कि ज़िन्दगी ही
कम पड़ जाए,
जिस्म तो है महज मामला ए
ख़ाक  लेकिन न जाने
क्यूँ रूह -
ए - तिश्नगी बनी रहती है, - -

* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
art by alisa wilcher

28 अप्रैल, 2015

अंतहीन गहराइयों में - -

जब समंदर की लहरों में आ जाए इक
ठहराव सा, और रात डूब चली
हो अंतहीन गहराइयों में,
तुम्हें पाता हूँ, मैं
बहोत क़रीब
अपने, तब जिस्म मेरा बेजान सा और
तुम फिरती हो कहीं मेरी परछाइयों
में। चाँदनी का लिबास ओढ़े
तुम खेलती हो मेरे
वजूद से यूँ
रात भर, गोया आसमां ओ बादलों के -
दरमियां, है कोई  पुरअसरार
इक़रारनामा, किसी
लाफ़ानी ख़ुश्बू
की तरह
तुम बसती हो कहीं, मेरी रूह की अथाह
तन्हाइयों में - -

* *
- शांतनु सान्याल
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Clair De Lune, by Cyril Penny.jpg

15 अप्रैल, 2015

कुछ मौसमी फूल सजाए रखिए - -

शायद  वो कभी आए; सरे बज़्म भूली
याद की तरह, अपने  दर्द ओ
अलम को यूँ ही सहलाए
रखिए। 
वादियों में फिर धूप खिली है सहमी - -
सहमी, अहाते दिल के कुछ
मौसमी फूल सजाए
रखिए।
न जाने किस मोड़ पे उसका पता लिखा
हो, क़दीम ख़तों से यूँ ही दिल को
बहलाए रखिए।
हर एक दर
ओ बाम पे हैं यूँ तो चिराग़ रौशन, अंधेरों
से फिर भी ज़रा दोस्ती निभाए
रखिए। चाँद छुपते ही
फिर जागी हैं
किनारे
की सिसकियाँ, परछाइयों से गाहे बगाहे
ज़रा दामन बचाए रखिए। ये
आईना है बहोत ज़िद्दी;
कोई भी सुलह
नहीं करता,
बीते  लम्हात के सभी अक्स दिल में - -
बसाए रखिए। नाज़ुक थे सभी
रिश्ते; टूट गए आहिस्ता
आहिस्ता,
फिर भी मुस्कुराने का गुमां यूँ ही बनाए
रखिए। निगाह अश्क से हैं लबरेज़;
ओठों पे अहसास शबनमी,
दिल ए बियाबां को
यूँ ही बारहा
महकाए रखिए। शायद  वो कभी आए;
सरे बज़्म भूली याद की तरह,
अपने  दर्द ओ अलम
को यूँ ही सहलाए
रखिए।  

* *
- शांतनु सान्याल
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13 अप्रैल, 2015

सुंदरता की परिभाषा - -

सुंदरता की परिभाषा किताबों में नहीं,
मोतियों की तरह सीप के दिल
में, शायद रहती है वो कहीं,
कुछ गुमसुम सी,
कुछ सहमी
सहमी,
सजल आँखों के तीर उभरती है, वो -
अक्सर बारूह नज़र के सामने,
उसका पता शायर के
ख़्वाबों में नहीं।
सुंदरता की परिभाषा किताबों में नहीं।
न रूप न रंग, न कोई उपासना,
कभी अदृश्य, और कभी
वो इक मुखरित
प्रार्थना,
अहसास ए नफ़्स अतर, कभी दर्द की
अंतहीन लहर, दिल की रगों में
शायद वो बसता हैं कहीं,
क़ीमती असबाबों
में नहीं,
सुंदरता की परिभाषा किताबों में नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल
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09 अप्रैल, 2015

कुछ भी याद नहीं - -

बूंद बूंद गिरती रही दिल पे तेरी, शबनमी
ओंठों की नमी, क़तरा क़तरा पिघलता
रहा रात भर, मेरे सीने की ज़मीं।
आसमां, चाँद  ओ सितारे,
न जाने कब उभरे
और कब
न जाने डूब गए सारे। इक तेरे चेहरे के -
सिवा, गुज़िश्ता रात हमें कुछ याद
नहीं, वो कोई तैरता हुआ
कहकशां था या
ख़ला ए
जुनूं, हम बहते रहे बाहम न जाने कहाँ
तक, ख़ुदा क़सम हमें कुछ भी
याद नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल
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02 अप्रैल, 2015

उड़ने का अहसास - -

ये आहटें हैं बड़ी जानी पहचानी,
मुद्दतों बाद, फिर किसी 
ने शायद मेरी सांसों 
को छुआ है। 
न जाने क्यूँ अचानक दर ओ - -
दीवार महकने से लगे हैं, 
फिर मेरी तन्हाई 
को जाने 
कुछ तो हुआ है । अब तलक मेरे 
जज़्बात बंद थे कहीं  रेशमी 
कोष के अंदर, कुछ 
सहमे सहमे 
से कुछ 
बेचैन शायद, अभी अभी खुले हैं 
तेरी निगाहों के दरीचे ! अभी 
अभी मेरी नाज़ुक पंखों 
को कहीं उड़ने का 
अहसास 
हुआ है। फिर किसी ने शायद मेरी 
सांसों को छुआ है। 

* * 
- शांतनु सान्याल 
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22 मार्च, 2015

कच्ची माटी की दुनिया - -

तुम्हारी सुबह मेरी सुबह से है अलग बहोत,
मेरे सामने हैं कुछ मिट्टी के बर्तन,
और एक अदद, काठ का
पहिया, तुम्हारे
सामने हैं
बिखरे हुए कांच के टुकड़े, और बेतरतीब - -
रेशमी कपड़े, कुछ बेरंग सिलवटें !
कुछ ख़्वाब बदगुमां, मुझसे
मुख़ातिब हैं कुछ
थकन भरे
चेहरे लेकिन शिकस्ता नहीं, जिस आख़री
छोर पे, तुम्हारा उड़ान पुल रुक
जाता है हाँपता हुआ, ठीक
उसी जगह से मेरा
सफ़र करता
है शंखनाद ! और यही वजह है कि मैं कभी
मिटता नहीं, कभी थकता नहीं, कभी
रुकता नहीं, कच्ची माटी की है
मेरी दुनिया, जिसे टूटने
का कोई ख़ौफ़
नहीं होता,

* *
- शांतनु सान्याल
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Demetra Kalams Watercolors

13 मार्च, 2015

अभी अभी - -

अब जो भी हो मुझे
बेख़ुदी में,
रहने दे यूँ ही,
ये भरम
बरक़रार, कि अभी अभी मेरी -
पलकों पे है, झुकी हुई सी
तेरे रुख़ की परछाई,
अभी अभी
बेतरतीब टूट के बिखरे हों गोया
कुछ नाज़ुक बादलों के
साए, सुलगते
सीने में
फिर अचानक उभरा है कोई - -
लापता मरूद्यान !

* *
- शांतनु सान्याल


उसी एक बिंदु पर - -

हर नज़र जा के रूकती है उसी एक बिंदु पर,
कहने को हर एक का नज़रिया है अलगाना,

कहाँ तू भी है आज़ाद, दुनिया के बंधनों से -
मेरे जीवन का भी कहाँ  है दीगर अफ़साना,

यक़ीनन हर कोई बह रहा है वक़्त के साथ,
किसे ख़बर कहाँ है सागर और कहाँ मुहाना,

दो काँटों के दरमियां है सिमटी हुई ज़िन्दगी,

मिलना बिछुड़ना तो है इक ख़ूबसूरत बहाना।
* *
- शांतनु सान्याल 

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Glennda Field Fine Art.jpg 1

11 मार्च, 2015

हलफ़नामा - -

उसकी चाहत का मुतालबा,
ज़िन्दगी से है कहीं
ज़ियादा, बहुत
मुश्किल
 है निभाना, मुख़्तसर उम्र में
इंतहाई वादा, जो भी हो
अंजाम ए सफ़र,
अब लौटना
नहीं
मुमकिन, हमने तो कर दिए
दस्तख़त बिन देखे, बिन
पहचाने ! कौन  है
मुजरिम
और
कौन भला मासूम, दिल का भेद
ख़ुदा बेहतर जाने।

* *
- शांतनु  सान्याल
 

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mary maxam painting.jp.jpg

09 मार्च, 2015

फिर कभी पूछ लेना - -


फिर कभी पूछ लेना, नम आँखों के राज़,
दीर्घ अंतराल के बाद मिलो हो तुम आज,



उम्र का तक़ाज़ा है, या बेवक़्त सिलवटें -
न रहा आईने को भी मुझसे कोई ऐतराज़,


न देख मुझे, यूँ हैरत भरी नज़र से दोस्त,
रोके रुकते नहीं बेरहम वक़्त के परवाज़,

तेरी निगाह में अब तलक है महक बाक़ी
क्या हुआ कि ज़माने से हूँ मैं नज़रअंदाज़,

न लौटने का सबब जो भी हो उनके साथ,
यूँ तो बेइंतहा हमने, दी थीं उन्हें आवाज़ !

- शांतनु सान्याल 

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