19 अप्रैल, 2014

मृगतृष्णा - -

था दर इंतज़ार किसी के लिए मैं 
अज़ल ए जहान से, पर्दे की 
ओट से देखता रहा वो 
शख़्स हर वक़्त,
लेकिन 
महरूम रही मेरी रूह उसकी - - - 
पहचान से, वो कोई ग़ैर 
न था, बल्कि मुझ 
में ही रह कर
खेलता 
रहा वो मेरे जिस्म ओ जान से - -
भटकती रही मेरी निगाहें,
कभी मंदिर, कभी 
मस्जिद,
उलझा रहा मेरा ज़मीर, निशाँ - -
ओ बेनिशाँ के दरमियान,
छलता रहा वो मुझे 
मृगतृष्णा की 
मानिंद
कभी गुलशन में, कभी तपते हुए 
रेगिस्तान से - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 

http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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