27 फ़रवरी, 2014

रख गया कोई रात ढलते - -

रख गया कोई रात ढलते, यूँ ही दिल
के अहाते, शबनमी बूंदों में डूबे
कुछ महकते गुलाब, या
किसी ने कांपते
ओठों से
छुआ है दहकते आँखों की नमी, फिर
किसी ने अँधेरे में, चुपके चुपके
मेरे सीने पे लिखा हैं इक
रहस्यमयी ग़ज़ल,
या संदली
अहसास में लिपटा कोई ख्वाब, बा -
शक्ल गुलपोश लिफ़ाफ़े में बंद,
किसी ने मेरे सिरहाने
रखा है, अपनी
नाज़ुक
मुहोब्बत की ख़ुश्बू, कि हर करवट पे
ज़िन्दगी सुनती है किसी के क़दमों
की आहट, नींद आजकल है
कुछ हमसे बरहम !

* *
- शांतनु सान्याल

 

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poetic rose

26 फ़रवरी, 2014

पर्दा उठते ही - -

इक बहाव या कोई मद्धम नशा, ले 
जाए मुझे रफ़ता रफ़ता, न 
जाने किस अनजानी
राह में, कुछ 
पहचाने 
कुछ अजनबी से चेहरे, कुछ डूबते -
कुछ उभरते किनारे, दरमियां 
अपने है, इक मुसलसल 
कोहरा या ज़माने 
के हमराह 
तुमने भी सीख लिया, मुताबिक़ - -
मौक़ा, रुख़ अपना बदलना,  
ग़लत इसमें कुछ भी 
नहीं, कोई  
नहीं जहान में, जो निभाए क़सम - 
उम्र भर के लिए, बस इक 
नज़र का धोखा है 
अपनापन, 
पर्दा उठते ही किरदार बदल जाते हैं, 
ये ज़मीं ओ आसमां सब कुछ 
रहते हैं अपनी जगह 
कायम, मौसम 
के लेकिन 
हर दौर में तलबगार बदल जाते हैं.

* * 
- शांतनु सान्याल 
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25 फ़रवरी, 2014

यहाँ रहनुमा कोई नहीं - -

इक मुद्दत के बाद, फिर हमने धूल के 
परतों को साफ़ किया, आईना 
फिर लगे है नई किताब 
जैसा, इक ज़माने 
से है उनको 
शिकायत 
कि हम नहीं मुस्कुराते, लो फिर ओढ़ 
ली हमने जिल्द कोई ख़ुशनुमा,
कौन देखता है, आजकल 
अंदरूनी पन्नों की 
दास्तां, दर -
असल 
ऊपरी ख़ूबसूरती पे रहती है दुनिया की 
नज़र, दिल की गहराइयों का अर्थ 
यहाँ कुछ भी नहीं, न रख 
उम्मीद ज़रूरत से 
ज़ियादा, 
जिसे हम समझते रहे रहनुमा अपना,
वही आख़िर में रहज़न निकला, 
यूँ तो शहर में हमारे थे 
दोस्त हज़ार 
लेकिन
जिसे हमने चाहा दिल ओ जां से बढ़ -
कर, अफ़सोस कि वही शख्स 
हमारा दुश्मन निकला !

* * 
- शांतनु सान्याल 

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23 फ़रवरी, 2014

जज़्बा ए इश्क़ - -

जिस्म से लम्बी परछाइयाँ, बढ़ा 
जाती हैं अक्सर, शाम ढलते
कुछ ज़ियादा ही, दिल 
की परेशानियाँ,
इंतज़ार 
कोई जो गहरा जाए मज़ीद, रूह 
की तन्हाइयाँ, न ले यूँ 
इम्तहां मेरे सब्र 
का, कि इक 
मुद्दत 
से हूँ मैं मुंतज़िर सुलगने के लिए,
रात ढलने से पहले, न कहीं 
बुझ जाए जज़्बा ए 
इश्क़, कितनी
सदियों 
से है बेक़रार ये ज़िन्दगी पिघलने 
के लिए - - 

* * 
- शांतनु सान्याल  
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21 फ़रवरी, 2014

अंतर्मन की निगाहें - -

इतनी मुश्किल भी न थी ज़िन्दगी की 
राहें, काश, समझ पातीं उन्हें 
अपनी अंतर्मन की 
निगाहें, कोई 
भी नहीं 
यहाँ बेदाग़ चेहरा, हर शख्स कहीं न -
कहीं ओढ़े है, चेहरे पे इक नया 
चेहरा, ग़ायब या ज़ाहिर, 
हर लब पे है इक 
ख़ामोश 
इश्तहार, ये बात और है कि हम उसे -
कितना पढ़ पाएं, ख़ुद से बाहर  
निकलना नहीं आसां, 
ग़र निकल भी 
आए, तो 
करती है पीछा, रात दिन अपनी ही - -
परछाई, उस हाल में आख़िर 
हम जाएं, तो कहाँ 
जाएं, दिल की 
आवाज़ 
से निपटना है, बहोत ही मुश्किल, ये -
लौट आती हैं हर बार छू कर 
किरदार ए आईना, कि 
अक्स अपना 
ख़ुद से 
छुपाना नहीं मुमकिन, कि घने धुंध में 
भी ये बार बार उभर आएं, काश, 
समझ पातीं उन्हें अपनी 
अंतर्मन की 
निगाहें।

* * 
- शांतनु सान्याल 
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दर्द अपना अपना - -

वो देखते रहे अक्स अपना, नम -
निगाहों में एकटक, मुस्कुरा 
के हमने, आँखों को 
यूँ आईना बना 
लिया, वो 
खेलते रहे बारहा जज़्बात ए दिल 
से मेरे, हर बार उनकी जीत 
पे हमने, दर्द अपना
यूँ छुपा लिया,
कुछ पाने 
के वास्ते ज़िन्दगी में बहोत कुछ 
खोना भी लाज़िम है, वो 
हमसे कितने रहे 
मरासिम, या 
हमने 
कितने निभायी वफ़ादारी, कहना 
है बहोत मुश्किल, दिखावा 
रहा कितना और 
मयार ए 
ईमान कितना, ये बात और है कि 
इश्क़ को उसने, ख़ुदा बना 
दिया। 

* * 
- शांतनु सान्याल 
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art by karen margulis
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19 फ़रवरी, 2014

अदृश्य अंतराल - -

खिलने और मुरझाने के बीच था -  
एक अदृश्य अंतराल, कुछ 
ख़ुशी, कुछ अफ़सोस,
तुम्हारी ख़ामोशी 
और मेरा 
अचानक निःशब्द हो जाना, बहुत 
कुछ कह जाता है अपने आप,
सूखे फूलों की थीं अपनी 
मज़बूरी, ये और 
बात थी 
कि, ख़ुश्बूओं ने भी दामन छोड़ - -
दिया, दरअसल इसमें दोष 
किसी का भी नहीं,
मौसम की है 
अपनी 
शर्तें, चाहे कोई उसे समझे या नहीं,
कोहरे में हैं डूबे दोनों किनारें,
जहाँ तुम्हें छू लें मेरी 
आहें, बस वहीं 
तक हैं 
महदूद मेरी ज़िन्दगी की तमाम -  
राहें।
* * 
- शांतनु सान्याल 

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16 फ़रवरी, 2014

ख़ूबसूरत ख्वाब - -

कोई आहट जो साँसों में भर जाए 
ताज़गी, कोई हमनफ़स जो 
बन जाए, मानी  ए 
ज़िन्दगी, कोई 
अहसास 
गुलाबी, भर जाए भीनी सी ख़ुश्बू,
कि इक मुद्दत से है, मुंतज़िर 
दिल की वीरानगी, फिर 
उठे कोई तूफ़ान, 
ख़ामोश 
तहे जज़्बात, रात गहराते फिर हो 
मुसलसल बरसात, इक छुअन 
तिलस्मी, निगाहों से 
छू जाए दिल 
की ज़मीं,
कि फिर उभरने को हैं बेताब मेरी 
आँखों में कहीं, अनदेखे कुछ 
ख़ूबसूरत ख्वाब !

* * 
- शांतनु सान्याल 

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जां से बढ़ कर - -

जां से बढ़ कर तेरी चाहत, न कर - 
जाए मुझे बर्बाद, रहने भी दे 
कुछ तो भरम, कि 
टूटने के बाद 
कोई 
सदमा न हो, डरता हूँ तेरी इस - -
बेइंतहा वफ़ा से, कहीं हो 
न जाऊं मैं ख़ुद से 
बदगुमां, वो 
अक़ीदा 
जो बुत को बनाए ख़ुदा, फ़लसफ़ों 
की बात है, कि रहने दे मुझे 
ज़ेर ख़ाक, वही तो है 
आख़री मंज़िल 
मेरी, इतनी 
मुहोब्बत ठीक नहीं, जिस्म तो है 
फ़ानी और रूह आज़ाद, न 
बाँध मुझे अपनी
निगाहों में 
इस क़दर, कि रूह बन जाए न कहीं 
अज़ाब - - 

* * 
- शांतनु सान्याल  

अज़ाब - शाप 
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Blue Hydrangeas 1

15 फ़रवरी, 2014

ले चल फिर मुझे इक बार - -

ले चल फिर मुझे इक बार उन्हीं 
ख्वाब उनींदी राहों में कहीं, 
है बोझिल जिस्म ओ 
जां, कि साँस 
भी है 
कुछ मद्धम सा, ले चल कहीं - - 
दूर, ज़माने के तमाम 
वो कँटीली रस्म 
ओ रिवाज 
के बर 
अक्स, किसी उन्मुक्त आसमां -
के तले, जहाँ बिखरती हो 
चाँदनी अबाध नदी 
की तरह, 
भिगोती है जहाँ शबनम की बूंदें, 
रात ढले, रूह की तिश्नगी 
लम्हा लम्हा, जहाँ 
दग्ध जीवन 
पाए -
इक नवीन उच्छ्वास, हो मुझे -
फिर दोबारा तेरे बेइंतहा 
इश्क़ का अंतहीन 
अहसास।

* * 
- शांतनु सान्याल 

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14 फ़रवरी, 2014

cipher beauty

काश, ऐसा हो जाए - -

इक तलाश जो गुज़री सिसकती -
सीलनभरी राहों से हो कर,
जहाँ जवानी से पहले 
ज़िन्दगी झुर्रियों 
में सिमट 
जाए,
इक जुस्तजू जो चीखती है गली -
कूचे में कहीं, काश उसे 
ख़ुशगवार सुबह 
नसीब हो
जाए, 
इक तमन्ना, जो झांकती है झीनी 
पर्दों से कहीं, शायद उसके 
ख्वाबों को मिले 
तितलियों 
के पर,
इक मासूम सी मुस्कान उभरती है 
झुग्गियों के साए से कहीं, 
काश, वो अंधेरों से 
निकल खुली 
हँसी में 
बदल जाए, इक ख्वाहिश उठती है 
अक्सर दिल में, काश, हर 
एक चेहरे से बोझिल 
रात ढल जाए - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 

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River Roses

13 फ़रवरी, 2014

दरमियान ज़मी ओ आसमान - -

न जाने किस बियाबां में बरसे हैं 
राख रंगी बादल, शाम ढलते
इक अहसास ए पुरसुकूं 
सा है दिल को, न 
जाने किसने 
फिर 
छुआ है ख़ामोश दर्द को मेरे, कि 
फिर रफ़ता रफ़ता तेरी 
मुहोब्बत जवां हो 
चली है, हर 
सिम्त 
में है इक अजीब सा ख़ुश्बुओं में 
डूबा इन्क़लाब, फिर किसी 
ने कुरेदा है कहीं बुझता 
हुआ अंगारा, कि 
उड़ चले हैं 
हवाओं 
के हमराह फिर तुझे पाने की - -
जुस्तजू, या जुगनुओं में 
छुपे हैं, कहीं इश्क़
की अनबुझ 
चिंगारियां,
फिर 
भटकती है रूह, दरमियान ज़मी 
ओ आसमान, किसी कोहरे 
की मानिंद मुसलसल 
वादी दर वादी,
दूर तक !

* * 
- शांतनु सान्याल 

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11 फ़रवरी, 2014

वो आज भी है - -

वो आज भी है बहोत दिलकश,
नाज़ुक सुबह की किरण 
की तरह, खुलती 
हैं, जज़्बात 
की नाज़ुक पंखुड़ियां उसकी - -
निगाहों की धूप ले कर,
वो आज भी है बेहद 
हसीं, खिलते 
हैं उदास 
लम्हें, उसके ओंठों की सहमी 
सहमी सी पुरअसरार 
हँसी ले कर, रहे 
मौसम की 
अपनी 
मजबूरियां, बदलना है उसके 
फ़ितरत में शामिल, वो 
आज भी है बहोत
ज़िन्दगी के 
नज़दीक,
ख़ुश्बूदार साँसों की तरह - - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 

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09 फ़रवरी, 2014

अहाते में कहीं - -

अहाते में कहीं खिलें हैं रजनीगंधा -
या तेरी मुहोब्बत का यक़ीं 
हो चला है इस दिल को, 
रात भर बरसे 
हैं आवारा 
बादल, या छूती रही रुक रुक कर - -
बेचैन लहर साहिल को, न 
जाने कैसी है ये मद्धम 
अहसास की 
ख़ुश्बू,
भिगोती है रात ढले सांस बोझिल को, 
इक मीठा सा दर्द है, जिस्म ओ 
जां में मेरे, क्या कहें या 
न कहें उस हसीं 
क़ातिल को,
धीरे -
धीरे तेरी मुहोब्बत का यक़ीं हो चला -
है इस दिल को - -

* * 
- शांतनु सान्याल 
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art by FABIO CEMBRANELLI.jpg 1

कोई और न था - -

वो शख़्स कोई और न था मेरे अक्स 
के सिवा, छलता रहा मुझे ही 
ओ रात दिन, मेरे ही 
अंदर रह कर, वो 
आत्म दहन 
था कोई,
या ज़रूरत से कहीं ज्यादा पाने की -
ख्वाहिश, कहना है बहोत 
मुश्किल, दरअसल 
कई बार हम 
जानबूझ 
करते हैं ख़ुद से फ़रेब, और ढूंढ़ते हैं 
इक अदद मासूम चेहरा, 
इल्ज़ाम के लिए, 
मैंने ख़ुद ही 
चुनी थी 
राह अपनी, मंज़िल ग़र नज़र न -
तो इसमें रहनुमा आसमां 
का आख़िर क़सूर
कैसा, उसने 
तो खुला रखा था रात भर, उजालों 
भरा शामियाना - - 

* * 

- शांतनु सान्याल 

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art by Ryu Eunja

08 फ़रवरी, 2014

मुंतज़िर साँसें - -

उस मोड़ पे अब तलक हैं बिखरे 
गुलमोहरी यादों के निशां, 
कुछ मुस्कुराहटों के 
ख़ुश्बू, और 
एक 
मुश्त खुला आसमां, तलाशती -
हैं बेचैन निगाहें उजली 
रातों की कहानियां, 
कुछ तुम्हारे इश्क़ 
का वहम, 
कुछ 
मेरी रूह की परछाइयां, न जाने
किस जानिब तुम गए मुड़,
न जाने किस ओर थी 
मेरी मंज़िल, आज 
भी हैं मुंतज़िर 
मेरी साँसें, 
आज 
भी है बेक़रार, तुम्हारे लिए मेरा 
दिल - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 
मुंतज़िर - इंतज़ार में 
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 art by norma wilson

07 फ़रवरी, 2014

फिर कभी पूछ लेना - -

रहने दे कुछ दर्द बेज़ुबां तहत ए 
राख, कि आँखों ने अभी 
अभी दोस्ती की है 
अजनबी 
ख्वाब से, फिर कभी पूछ लेना 
इन नमनाक आँखों का 
माज़रा, अभी तो 
मुस्कुराने का 
हुनर पा 
जाए ज़िन्दगी, क्यूँ बेक़रार से 
हैं तेरे चेहरे के बदलते रंग, 
अभी तो हमने पूरी 
तरह से दिल 
में तुझे 
उतारा भी नहीं, कुछ और वक़्त 
चाहिए, मुहोब्बत को 
मुक्कमल यक़ीं 
में बदलने 
के लिए.

* * 
- शांतनु सान्याल 

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05 फ़रवरी, 2014

कोई लकीर मकनून - -

जिस्म ओ जां के दरमियां है कोई 
लकीर मकनून, या तेरी 
चाहत का है कोई 
बेइंतहा 
जूनून, भटकती है रूह मंज़िल दर 
मंज़िल, सहरा - सहरा, वादी 
दर वादी, गुलशन -
गुलशन,
इक दीवानगी जो कर जाए असर,
दिल के बहोत अंदर, भूल 
जाए ज़मीर, सारी 
दुनिया,
लम्हा दर लम्हा, खो जाए वजूद -
किसी की निगाहों में इस 
क़दर कि, होश ओ 
बेख़ुदी में 
न रह जाए कोई तफ़ावत ज़रा भी,
बस इक तेरा चेहरा नज़र आए 
रुबरु मेरे, बाक़ी सारा 
जहान, इक धुंध 
में डूबता 
उभरता दिखाई दे मुझको कि मैं 
हो चला हूँ तेरे इश्क़ में 
लापता - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 

अर्थ - 
मकनून - छुपा हुआ 
जूनून - दीवानगी 
सहरा - मरू भूमि 
तफ़वात - अंतर 
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ख़ूबसूरत शून्यता - -

इक ख़ालीपन सा रहा हमराह
दूर तक, जबकि सब
कुछ था बिखरा
हुआ मेरे
दामन में बेतरतीब, फूल ओ -
महक, रात ओ चांदनी,
फिर भी काँटों की
नोंक पे ठहरी
हुई सी,
शबनमी बूंद ही रही ये मेरी -
ज़िन्दगी, कुछ उलझी
हुई, कुछ अजीब
सी, इक
अंतहीन इंतज़ार या अनबुझ
कोई तिश्नगी, कहना
है मुश्किल, कहाँ
जाना चाहे
दिल
और न जाने कहाँ थी मंज़िल
पोशीदा, मृगतृष्णा थीं
वो परछाइयाँ, या
ख़ुद हमने
चाहा
नीलकंठ होना, फिर भी जो -
कुछ मिला हिस्से में
हमारे, बेशक
ख़ूबसूरत
ही था.

* *
- शांतनु सान्याल

03 फ़रवरी, 2014

ज़िन्दगी की राहें - -

न खेल यूँ आतिश ए जज़्बात से - 
मेरे, झुलस न रह जाए कहीं 
उभरते बर्ग मुहोब्बत, 
अभी तलक 
तुमने 
देखा कहाँ है चमन का मुक्कमल 
संवरना, सूरज की पहली -
किरण में फूलों का 
हौले हौले से 
खिलना,
अभी अभी तो ढली है ख़ुमार ए -
शब, कुछ और रौशनी बिखरे 
वादियों में, अभी तलक 
है तुम्हारे दिल में 
शबनमी 
छुअन बाक़ी, न देख यूँ नींद भरी 
आँखों से हक़ीक़ी दुनिया,
कि आसां नहीं है 
ख्वाबो से
यकायक उभरना, ज़िन्दगी की -
राहें हैं बहोत मुश्किल 
लेकिन हसीन भी 
कम नहीं।

* * 
- शांतनु सान्याल 

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ज़रा और सहेज पाते - -

 बहोत नाज़ुक थे वो रेशमी पल -
ज़रा सी आहट में टूट गए,
ज़रा और सहेज पाते 
अपनी बिखरी 
हुई, बूंद -
बूंद ये ज़िन्दगी कि उसके पहले
ही वो रूठ गए, इक कोहरा 
सा था ज़रूर दरमियां 
अपने, लेकिन 
अँधेरा 
नहीं, फिर भी न जाने क्यूँ, हम 
भीड़ में तनहा छूट गए, 
कोशिशों में न थी 
कोई कमी,
सीने 
से लगा रखा था, उन्हें ताउम्र - - 
हमने, तक़दीर का गिला 
किस से करें लूटने 
वाले फिर भी 
लूट गए,
बहोत नाज़ुक थे वो रेशमी पल -
ज़रा सी आहट में टूट गए.

* * 
- शांतनु सान्याल  

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