07 अक्तूबर, 2013

सर्व व्याप्त सत्ता - -

न पृथ्वी, न अन्तरिक्ष, न महासागर,
उसका अस्तित्व है, अंतरतम 
की गहराइयों में कहीं, 
सभी तर्क जहाँ 
हो जाएँ 
मिथक, सभी दर्शन जहाँ हों निर्वाक,
उसी निःशब्द, अदृश्य सत्ता 
का प्रतिबिम्ब झलकता 
है, सजल नयन की 
गहराइयों में, 
कहीं, न
लिपि, न कोई वर्णमाला, न ही कोई -
भाषाई कलह, वो अनुभूति है 
दिव्य, जो समझ पाए 
दूसरों की व्यथा,
और वहीँ 
रहती है वो अगोचर शक्ति, रूप - रंग 
रहित लेकिन सर्व व्याप्त सत्ता,
हर सांस, हर एक स्पंदन 
में है वो सम्मिलित।
* * 
- शांतनु सान्याल 
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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