23 मई, 2013

नुक़ता ए मरकज़ - -

इजलास ख़ुफ़िया है शायद आख़री पहर,
तारों की मौजूदगी है कुछ कम, न
जाने कहाँ गए वो ज़रिया
ए रौशनी, कि चाँद
भी है गुमसुम,
सहमी
सहमी सी है चांदनी ! इक अजीब सी -
ख़ामोशी रही दरमियां अपने, न
तुम कुछ कह सके, और
न ही हम दिखा
पाए दाग़
ए दिल अपना, सिफ़र में देखते रहे रात
भर, मेरी सांसों में थी ख़ुशबू तेरी
चाहतों की पुरअसर , लेकिन
न तुम समझ पाए
और न हम ही
दिखा
पाए वो नुक़ता ए मरकज़ जहाँ खिलते हैं -
गुल जावेदां ख़ूबसूरत - -
* *
- शांतनु सान्याल

इजलास ख़ुफ़िया  -- गुप्त सम्मलेन
जावेदां - अमर
नुक़ता ए मरकज़  - केंद्र बिंदु

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past