27 जुलाई, 2012

अधूरी ख्वाहिश

तमाम रात मद्धम आंच लिए दिल में 
सुलगता रहा आसमान, फिर 
कहीं जा कर कर ओष
बिखरे ज़मीं पर, 
तन्हा 
मुसाफ़िर और बादलों के बीच चाँद का 
सफ़र, कहीं कोई नाज़ुक तार हो 
जैसे, ख़लाओं में गूंजती रही 
किसी की सदा बार बार,
हमवार पत्तों में 
गिरे बूंदें या 
दिल की 
रग़ों में थी कंपकंपाहट, हर एक  सांस -
में कोई शामिल, हर आह में 
किसी की चाहत, न 
जाने कौन था 
वो, न ही 
नज़दीक, न बहोत दूर, ज़िन्दगी देती रही
आवाज़, ख़ामोश वादियों से यूँ 
टूटकर, भुला न पाया उसे 
चाह कर, फिर वजूद 
निकल चला है 
उसकी 
खोज में दूर तक, शायद वो मिले कहीं -
किसी दरख़्त के साए में, चांदनी 
में अब तलक ठंडक है बाक़ी,
फिर मुझे दे जाए कोई 
जीने के मानी, 
रख जाये 
खुले हथेलियों में उम्मीद के जुगनू, कि 
दिल चाहता फिर तितलियों के 
परों को छूना, खिलते 
पंखुड़ियों को 
देखना,
फिर तेरी हाथों पर मेंहदी से मुक़द्दस कोई  
ग़ज़ल लिखना - - 
- शांतनु सान्याल 

 

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