21 जून, 2012

नज़्म - - दस्तख़त,

इस शहर की तमाम रास्ते, गलि नुक्कड़ 
थे आशना कभी मुझसे; इक मुद्दत 
के बाद लौटा हूँ यहाँ, कोई तो 
बतलाए मेरे घर का निशां,
इसी मोड़ पर कभी 
उठाई थी क़सम 
साथ जीने 
मरने 
की; यही कहीं था शायद कोई सोया हुआ 
आतिशफ़िशां, जाने कहाँ उड़ गए 
सुलगते राख़ में वो तहरीरे 
अहद, जिसमे की थी 
हमने खूने 
दस्तख़त, कि लौटा लाएंगे ज़मीं पर इक 
दिन सितारों कि दुनिया - - 
- शांतनु सान्याल 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past