11 मई, 2012

कोई पूछे ज़रा 


गुज़री है रात नंगे पांव दहकते अंगारों से शायद;
क्षितिज पर उभरे हैं; फिर कहीं जा के कुछ
रंगीन नज़ारे, एक शून्यता जो ख़ुद
में समेटे है सारी दुनिया, वो
खोजते हैं अस्तित्व
बिखर जाने
के बाद,
कोई पूछे तो सही; आसमां से शामियाना होने
का दर्द, कितने ही तूफ़ान लिए सीने में
वो रौशन रहा रात भर, आंसुओं
को उसने कहा शबनम;
कितनी मुश्किल
से टपके थे
जज़्बात
कोई क्या जाने, ज़िन्दगी रुकी रही देर तक;
भोर की हलकी रौशनी में तनहा, साँस
थे यायावर प्रतिध्वनि; न जाने
किस ओर मुड़ गए - - -

- शांतनु सान्याल



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