08 अप्रैल, 2012

नज़्म - - लबरेज़ ख़्वाब

जालीदार मेहराब से, जब रात ढलते -
उतरती है चांदनी, उनींदी आँखों
में तैरते हैं कुछ ख़ुश्बुओं
में लबरेज़ ख़्वाब,
कुछ ख़ामोश
वादे
लिए, अनकहे हज़ार अफ़साने, कोई
दहलीज़ पे रख जाता है चुपके
से हैरत अंगेज़ तोहफ़ा,
पंखुड़ियों में
लिपटा
इक बंद लिफ़ाफ़ा, नज़्म या ग़ज़ल न
जाने क्या है उसमें, रात भर
इक मीठा सा दर्द लिए
सीने में, वजूद
सोचता है
उसे खोलें की नहीं, राज़ ग़र खुल जाए
तो ज़िन्दगी में लुत्फ़ क्या
बाक़ी होगा, यही
ख्याल मुझे
तमाम रात सांस लेने नहीं देता, ये तेरा
अंदाज़े बयां है या जानलेवा
इक़रार नामा, अक्सर
सोचता है दिल
लेकिन
वो तहरीरे ज़िन्दगी चाह कर भी पढ़ नहीं
पाता, हर बार सोचता है ज़ेहन
हर बार चाहता है कहना,
मुझे तुमसे मुहोब्बत
है लेकिन हर
बार ये
कह नहीं पाता, लौट जातीं हैं जालियों से
छन कर आने वाली रौशनी या
घिर चलीं हैं फिर आसमां
में बदलियाँ - -

- शांतनु सान्याल

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