03 अप्रैल, 2012

नज़्म - - मुहोब्बत के हरूफ़,

कुछ भी तो नहीं मेरे पास, फिर है किस
चीज़ की तुम्हें तलाश, कहीं और 
हो शायद वो गुमशुदा, कोई 
चाहत या ख़्वाब  की 
ताबीर, न  देख 
मुझे यूँ 
पुरअसरार निगाहों से बार बार, मैं वो 
नहीं जिसकी है तुम्हें तलाश, 
वज़ाहत जो भी हो इस 
वजूद के मानी हैं 
मुख़्तसर,
इक  चिराग़ जो बुझ  के भी जलता है 
बारहा शाम ढलते ही, बामे 
मुक़द्दस ढह चुका है 
तो क्या हुआ, 
अब भी 
हैं मौजूद कुछ पोशीदा इबादत के निशां, 
ग़र चाहो तो ले जाओ कुछ बिखरे 
मुहोब्बत के हरूफ़, कुछ 
अश्के रूह, इसके 
अलावा 
मेरे दामन में कुछ भी नहीं - - - 

- शांतनु सान्याल  

1 टिप्पणी:

  1. सार्थक सृजन, आभार.

    कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारें

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