14 जनवरी, 2012

नज़्म - - अंतर्मन,

बहुत क़रीब से दिल के गुज़रे मगर छू न सके 
अंतर्मन, असमय मेघ की भांति ठहरे 
ज़रूर शिखर पर, चाह कर भी वो 
बारिश की बूंदों में तब्दील 
हो न सके, तपती 
घाटियों की 
तरह 
अतृप्त भावनाएं, बादलों का यूँ गुज़रना
 देखती रही, विगत रात न जाने 
क्या हुआ, आकाशगंगा के 
किनारे सभी ख़्वाब
बैठे रहे मातमी 
चेहरा लिए !
हमने 
बहुत चाहा, आँखों में बसाना उनको, वो 
आये ज़रूर नज़र हमको लेकिन 
तासीर में शायद कुछ कमी 
थी, वर्ना उनका अक्स 
उभर कर निगाहों 
से यूँ फिसलता 
नहीं - - - 

- - शांतनु सान्याल 
 

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