09 मई, 2023

कांच के उपहार - -

समझौता कहें या मजबूरी , शब्दों की है
कारीगरी, वास्तविकता ये है कि
उन दो स्तंभों के मध्य की
दूरी, रस्सियों से थी
पूरी, ज़िन्दगी
ने जिसे तय किया, व्यक्तित्व मेरा क्या -
था , क्या है, कभी समय मिले
तो चेहरे के लकीरों से
पूछ लेना,
प्रतिबिम्ब की अपनी सीमाएं थीं, वो
चौखट पार कर न सका, खुल कर
नग्न हो न सका, यही वजह थी
शायद, कि सोने के दाम वो
बिक न सका, कांच
के पुरस्कार ही
सही, कभी जो हाथ से फिसल पड़े तो टूटने
का दुःख नहीं होगा, जिनके बदन हों
तीरों से बिंधे हुए, बिखरे कीलों
पर  चलने का उन्हें भय
नहीं होता, इधर से गुज़रते हैं कुछ सहमे
सहमे बादलों के साए, कहीं टूट
कर बिखर न जाएं, ये
उनकी अपनी
सोच है,
धूप  व छाँव का बटवारा करें जितना चाहें,
खंडहर से भी उठती हैं साँसें , छूतीं
हैं चाँद की छाया , ग्रहण में
भी खिलती हैं ,भावनाओं की निशि कमलिका,
जीवन प्रवाह रोके नहीं रुकता , ये बात
और है कि हर कोई परिपूर्ण समुद्र
पा नहीं सकता, एक ही
जीवन में अनेक
जीवन
जी
नहीं  सकता, दोबारा हलाहल पी नहीं सकता।

- - शांतनु सान्याल






2 टिप्‍पणियां:


  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 10 मई 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
    अथ स्वागतम शुभ स्वागतम

    जवाब देंहटाएं

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