17 अक्तूबर, 2011

किस्तों में जीने की अदा

किस्तों में दे जाते हैं वो जीने की हिदायत,
उधार लौटने में कहीं उम्र ही न गुज़र
जाए, उनकी उपहारों में लिखा
होता है कुछ अजीब सा
सन्देश, तात्पर्य
समझने में
कहीं
झुर्रियां न उभर आए, मैं अपनी ही छाया
से स्वयं को बचाए रखता हूँ, कभी
चेहरा कभी दिल के दाग़,
वास्तविकता व
दिखावे में
ज़रा
सा फ़र्क़ बनाये रखता हूँ, तुम्हारी अपनी
कुछ मजबूरियां थीं शायद, तुमने
खींची हैं आतिश की लकीरें,
इर्दगिर्द मेरे जो ख़्वाब
की थीं बस्तियां
सुना है
जा चुके सभी छोड़ कर किसी और शहर
में, त्याग पुत्र की तरह हैं मेरी
आजकल शख़्सियत, कर्ण
की तरह मन खोजता
है कोई दोस्त जो
बुरा हो कर
भी दे
जाय जीवन को नए सन्दर्भ, आयाम
गहरे, डूबने से पहले ज़िन्दगी
को जहाँ अफ़सोस न हो,
यहाँ तो हर दूसरा है
अजनबी चेहरा,
रग़ों में रह
भरता  
है दोस्ती का दम, वक़्त आने पर कर
जाता है किनाराकशी, दे जाता
है किस्तों में हसी, टुकड़ों
में ज़िन्दगी.

-- शांतनु सान्याल
 

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