07 जून, 2023

रहने दे भरम ज़रा ज़रा

रहने दे भरम क़ायम कुछ देर ही सही, 
उनको है शायद मुझसे अपनापन ज़रा ज़रा,

फिर चाहती है ज़िन्दगी उजरत क्यूँ कर, 
क़िस्तों में उठी है फिर ये धड़कन  ज़रा ज़रा, 

उड़ती हैं तितलियाँ बचा काँटों से पंख अपने, 
फिर खौफज़दा सा  है, लड़कपन ज़रा ज़रा, 

वक़्त ने छीन लिया रंगों नूर कोई बात नहीं, 
जानता है मुझे वो क़दीम दरपन ज़रा ज़रा,
  
लिखे थे कभी उसने ज़िन्दगी पे क़िस्से हज़ार,
है आशना मुझसे उजड़ा अंजुमन ज़रा ज़रा,  

बरगद के साए पे कम ज़ कम न रख बाज़बिनी, 
धूप ओ छांव का है अपना चलन ज़रा ज़रा,

न मिटा पायी अह्सासे इंसानियत, तूफां भी,
उठते हैं दिलों में, दर्द यूँ आदतन ज़रा ज़रा, 

-- शांतनु सान्याल 

उजरत - शुल्क 
आशना - पहचाना 
बाज़बिनी - सिकंजा 
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/

4 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार ग़ज़ल |
    मेरे ब्लॉग में भी आयें-

    **मेरी कविता**

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  2. thanks dear friends - sure i will go through to your creation, actually i have very little time due to lot of job responsibility, hence sometimes i can not do that, but in future i will do that love and regards

    जवाब देंहटाएं
  3. शांतनु जी
    नमस्कार !

    फिर चाहती है ज़िन्दगी उजरत क्यूँ कर
    क़िस्तों में उठी है फिर ये धड़कन ज़रा ज़रा
    ग़ज़ल जैसी आपकी यह रचना प्रभावित करती है …

    बहुत ख़ूब !

    आइएगा हमारे घर भी :)

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