28 सितंबर, 2011


बिहान पुनः मुस्कुराये 

रेशमी जालों से निकल कभी पारदर्शी पंख लिए,

निस्तब्ध झील से उठ कर नीली घाटियों 

में कहीं, अनन्य कुसुमित वीथी 

जहाँ हो प्रतीक्षारत,

स्वरचित अग्निवलय- परिधि से बाहर उभरते 

हैं, रश्मि पुंज, जीवन रचता है जहाँ

नई परिभाषाएं, उच्छ्वास से 

झरते हैं सुरभित 

अभिलाष, कभी तो देख मुक्त वातायन पार की 

पृथ्वी, क्षितिज देता है रंगीन आवाज़,

साँझ उतरती है वन तुलसी के 

गंध लिए, देह बने 

सांध्य प्रदीप, हों तिमिर, प्रदीप्त पलकों तले,

रात रचे फिर जीने की सम्भावना 

स्वप्न हों मुकुलित दोबारा 

बिहान फिर मुस्कुराये.

-- शांतनु सान्याल
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27 सितंबर, 2011

ग़ज़ल - - सकूत निगाह

मतलब जाने क्या था उस सकूत निगाह का यारब
शोले थे मताजुब देख, उस सर्द ख़ाक का सुलगना

मुमकिन न था, हर ज़हर को हलक पार करना   
बेज़ान थी, तपिश मुश्किल था संग का पिघलना

वो जिस मक़ाम से देता है, मुझे सदायें तड़प कर  
तुरे आतिशफिशां पे तै था लेकिन ताज का ढहना

रोक लेता किसी तरह भी मैं उस कोलाके क़हर को
आसां न था शीशा ए दर्द को छूके फिर से संभलना

शबनम के वो  क़तरे ठहरे रहे काँटों की नोक पे यूँ
ख़ुश्क पत्ते थे बदनसीब, दुस्वार था फिरसे भीगना

रुकी रही देर तक फ़लक पे सितारों की वो मजलिस   
चाह कर भी हो न सका ज़ीस्त का घर से निकलना.

-- शांतनु सान्याल  
अर्थ -
मताजुब - आश्चर्य से
 सकूत - ख़ामोशी
आतिशफिशां - ज्वालामुखी
 मजलिस  - संस्था
कोलाके क़हर - तूफ़ान की बर्बादी
ज़ीस्त  - जीवन
 


24 सितंबर, 2011


अछूता बचपन 

परिसीमित अंचल मेरा स्रोत के विपरीत 
बह न सका, झूलते बरगद के मूल 
थामे मैं तकता रहा सांझ का 
उदास चेहरा, परिश्रांत, 
शिथिल,कोसों 
चल कर आता हुआ जीवन तटभूमि छू न 
सका, इस वन्य वीथि से हो कर जाती 
हैं कुछ पगडंडियाँ, नियति की 
रेखाओं की तरह, तिर्यक 
कभी समानांतर, 
निस्तेज आँखों में डूबती हैं भावी स्वप्नों की 
दुनिया, उसने चाहा था शरद की एक 
मुट्ठी ज्योत्स्ना, हेमंती धूप की 
कुछ परतें, शेमल की 
उड़तीं रेशमी रुई,
सभी ने कहीं न कहीं ऊँचाइयों को छू लिया, 
वो कुछ भी हो न सका, सुबह शाम 
एकटक देखता है वो लौटते 
हुए उजले परिधानों में 
सजे कुलीन बच्चे,
मुस्कराते हुए पालकों का आलिंगन, बड़े 
जतन से थामे हुए मज़बूत हाथ,
ख़ुद को पाता है इन्हीं भीड़ 
का हिस्सा, लेकिन 
कहीं कोई शून्यता उसे लौटा लाती है, वहीँ 
जहाँ से कोई भी राह निकलती नहीं,
आद्र आँखों से वो देखता है नदी 
का कटाव, धंसते किनारे 
बड़े ध्यान से वो पोंछता है रेस्तरां के मेज़ 
भाग्य की परछाई जो कभी उभर 
ही न सकी, जीवन ठहरता 
कहाँ है छूटते बचपन 
के लिए, 

-- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
  
     
  

नज़्म - - फ़लसफ़ा ए इश्क़

मर्तूब नफ़स से उठती हैं शाम ढलते
मज़तरब मेरी आहें, लोग कहते
हैं राज़े आतिश का पता नहीं,
महराबे जिस्म में रात
करती हैं तलाश मुझको, फ़िदा होने
से क़बल गुलेयास सजाती है
मेरा बदन खुश्बुओं से,
फिर ज़िन्दगी
गुज़रती है सोजिश राहों से नंगे पांव,
नक्ज़शुदा अहसास उठाते हैं   
ताबूत, मैं फिर ज़िन्दान
से निकल
राहे आसमां में करता हूँ सफ़र कामिल,
ये तेरी चाहत है जो मुझे हर
बार जीला जाती है,
नामहदूद तेरी मुहोब्बत मुझे मरने नहीं
देती, सिफ़र से बारहा उभर आता
हूँ मैं, नज़दीक तेरे बसते हैं
ख़ारिज अज़ आसमां
की दुनिया,
लेते हैं फ़लसफ़ा ए इश्क़ पैदाइश दोबारा.

-- शांतनु  सान्याल

अर्थ :   
  मरतूब - भीगी
गुलेयास - चमेली
मज़तरब - उद्वेलित
सोजिश - सुलगते
नक्ज़शुदा - टूटे हुए
ख़ारिज़ अज़ आस्मां - आकाश पार
फ़लसफ़ा - दर्शन  
 

22 सितंबर, 2011

ग़ज़ल - - ज़िन्दगी से कहीं ज़्यादा

ये गुमां था  वो चाहते हैं, हमें ज़िन्दगी से कहीं ज़्यादा
साँस रुकते ही सभी,वो ख़ुशी केअबहाम दूर होने लगे,

बामे हसरत पे शाम ढलते वो चिराग़ जलाना न भूले 
ताबिशे रूह लरजती है,राहत ओ आराम दूर होने लगे, 

मैंने ख़ुद ब ख़ुद ओढ़ ली है, तीरगी ए फ़रामोश शायद 
लज्ज़ते मुहोब्बत, मरहले शाद, तमाम दूर होने लगे,

इक पल नज़र से दूर न होने की, ज़मानत थी बेमानी 
रफ़्ता रफ़्ता यूँ, ज़िन्दगी से सुबहो शाम दूर होने लगे, 

-- शांतनु सान्याल 

अबहाम - कोहरा 
बाम - पठार
 ताबिश - चमक 
मरहला - वक़्त 
रफ़्ता - धीरे

20 सितंबर, 2011


पथराई आँखों के सपने 

ये मुमकिन न था किसी के लिए यूँ 

दुनिया ही भूला देना, दामन अपना 

हमने ख़ुद ही समेट लिया, रिश्ते वक़्त 

के साथ इक दिन ख़ुद ही सिमट गए,   

ये और बात थी की शमा बुझ के भी 

जलती रही उम्रभर, इंक़लाब उठा था 

हरीक हायल की मानिंद, देखे थे हमने 

मुख्तलिफ़ अल्मशकाल के सपने भी,  

रोटियां, पक्के मकानात, चिलमन से 

झांकते ताज़ारुह मुस्कराहटें, खुशनुमां  

ज़िन्दगी, माँ के आंसुओं में हमने कभी 

देखी थी तैरतीं बूंदों की क़स्तियां, आँचल 

से पोंछते हुए कांपते हाथ,दरवाज़े पे खड़ी

वो तस्वीर, जो अपना ज़ख्म कभी किसी को 

दिखा न सकी, सूनी कलाइयों में पुराने दाग़,    

जो कभी  भर ही न पाए, घर से निकलते हुए 

बहुत चाहा कि इक नज़र देख लें ज़िन्दगी,

लेकिन हर ख्वाहिश की तवील उम्र नहीं 

होतीं, उस आग में झुलसने की जुस्तज़ू थी 

सदीद, जलते रहे रात दिन, मिटते रहे 

लम्हा लम्हा, जब उस क़िले के मीनारों में 

परचम उड़े, हम स्याह कोने पे थे कहीं पड़े,

हमें मालूम ही न चला कब और कैसे 

हम हासिये से निकल ज़मी पे बिखर गए,

उस आग ने शायद उन ख्वाबों को भी जला 

दिया, अब हम ख़ुद से पूछते हैं इंक़लाब ओ 

आज़ादी के मानी, खाख में मिलने का सबब !

तलाशते हैं अपना इक अदद ठिकाना कि

रात है बेरहम, ज़िन्दगी मांगती है अपना 

हिसाब, हमने क्या दिया और किसने क्या 

लौटाया, हमें याद नहीं,  मुद्दत हुए आग पे 

रख कर हाथों पे हाथ, क़सम खाए हुए - 

-- शांतनु सान्याल 

हरीक हायल - जंगल की आग 

अल्मशकाल -Kaleidoscope बहुरूपमूर्तिदर्शी

मुख्तलिफ़ - विभिन्न 

19 सितंबर, 2011

उन्वान जो चाहे दे दो

ज़िन्दगी भी क्या चीज़ है अक्सर 
सोचता हूँ मैं, दोनों जानिब 
हैं रुके रुके  से धूप छाँव
की बस्तियां, दौड़ते दरख़्त 
कँवल भरे झील, रेत  के टीले 
 उदास चेहरों पे बबूल के 
साए, पलकों से गिरते पसीने 
की बूँदें, नंगे बदन बच्चों 
की भीड़, नदी किनारे उठता धुआँ,
कहीं कुछ छूटता नज़र आए 
रेल की रफ़्तार है ओझल, दौड़ 
चलीं हैं परछाइयाँ, उस पुल से क्या 
गुज़रती हैं कभी खुशियों की 
आहटें, जब भी देखा है तुम्हें ख़ामोश
निगाहें, तुम कुछ न कहते हुए 
भी बहुत कुछ कह जाते हो, उन इशारों 
का दर्द घुलता है रात गहराते, 
बेदिली से चाँद का धीरे धीरे सधे
क़दमों से ऊपर उठना, ढलती उम्र में 
जैसे किसी दस्तक की आस हो,   
चेहरे की झाइयाँ करती हैं 
मजबूर वर्ना आइने में रखा क्या है,
ये उम्मीद की लौटेंगी बहारें इक दिन 
वो रोज़ सवेरे दौड़ आता है,
कचनार के झुरमुट पार नदी के 
कगार, इंतज़ार करता है देर तक,
पटरियां हैं मौजूद अपनी जगह, पुल के 
नीचे बहती पहाड़ी नदी, अब सूख
चली है,  महुए की डालियों से झर 
 चले हैं उम्रदराज़ पत्ते, दूर तक उसका 
निशां कोई नहीं, शायद वक़्त का
 फ़रेब है या  अपनी क़िस्मत में मिलना 
लिखा नहीं, मुमकिन हैं उसने 
राहों को मोड़ लिया, ज़िन्दगी उदास लौट 
आती है वहीँ जहाँ किसी ने दी थीं 
ख्वाबों की रंगीन मोमबत्तियां, जो कभी 
जल ही न सकीं, अँधेरे में दिल 
चाहता है तुम्हें छूना महसूस करना, 
सांस लेना, दो पल और जीना --

-- शांतनु सान्याल  
 http://sanyalsduniya2.blogspot.com/

18 सितंबर, 2011

नज़्म - - जीने की आरज़ू,


आसमां की थीं शायद मजबूरियां
नजम टूट कर बिखरते रहे 
ज़मीं के थे अपने ही  
मंतक़, जो चाह कर भी अपना न 
सकी सिमटती नूरे जरयां
हर इक सांस में था 
ख़ुदा, हर क़दम 
पे जीने की आरज़ू, बेअसर रहीं न 
जाने क्यूँ अपना बनाने की 
अदा, हर इक बात पे न 
कहो कि लिल्लाह की 
मर्ज़ी, उसी ने कहा था मुझे कि मिलूं 
मैं तुमसे मस्जिद के साए 
मंदिर की सीड़ियों में 
कहीं, तपते धूप में, सर्द चाँद रातों में,
मिले भी तुम मगर अजनबी की 
तरह, पूछते रहे लहू का रंग 
जीने की अहमियत 
बिखरने का 
मक़ाम, हज़ारों सवालात, दे न सका 
कोई माक़ूल जवाब, अपनी ये 
शख्सीयत लिए लौट चला 
मैं गुमशुदा क़ब्रगाहों
के क़रीब, जहाँ फिज़ाओं में है पुरसुकून 
ख़ामोशी, अपनापन, ज़िन्दगी 
यहीं कहीं करती है तलाश 
सितारों के टूटने की 
वजह, इश्क़िया लोगों के मक़बरे, रूहों की 
सरज़मीं, रात ढलते जहाँ लगते हैं 
सूफ़ियों  के मेले, अक़ीदत यहाँ 
है ग़ैरमानी, शर्त हैं सभी 
सिर्फ़ इंसानी !

-- शांतनु सान्याल
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  अर्थ -  
  नजम - तारा 
 मंतक़ - तर्क 
नूरे जरयां - रौशनी का प्रवाह 
सूफ़ी - रहस्यमय 
अक़ीदत  - श्रद्धा 
माक़ूल - सही  

16 सितंबर, 2011

रुको ज़रा

रुको ज़रा
न दिखा आइना, अक्स बिखरा हुआ
चला पड़ा हूँ मैं फिर उन्हीं राहों पे
तलाशे वजूद की ख़ातिर -
उभरती हैं दर्द की लकीरें, ज़िन्दगी का
हिसाब है ग़लतियों से भरा, इस्लाह
है मुश्किल, जिसे तू कहे
जाने महबूब वो कोई नहीं, है वहम मेरा
ये वही वाकिफ़ शख्स है जिसने
हर क़दम उलझाया मुझे
ताशिर में रह कर
 भटकाया सहरा सहरा, मज़िल मंज़िल !
कहीं शायद रुकी है बारिश, हवाओं
में ज़िन्दगी का अहसास लगे,
न यहाँ है कोई मज़ार न
सदग़ कोई, लेकिन गूंजती हैं फिज़ाओं में
नन्हें बच्चों की किलकारियां,
खेलते हैं वो देर रात इन
चांदनी की परछाइयों
में कहीं लुकछुप, उनकी मासूम चेहरे में
ज़िन्दगी तलाशती है नाख़ुदा की
सूरत, नदी है गहरी बहुत
जाना है रौशनी के
शहर, रुको ज़रा की चूम लूँ उनके क़दम !
--- शांतनु सान्याल 
इस्लाह - सुधार
नाख़ुदा - मल्लाह
सदग़- मंदिर
ताशिर- अंतर्मन

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09 सितंबर, 2011

ग़ज़ल - - कभी तो आ ज़िन्दगी,

भीगी शाम की तरह कभी तो आ ज़िन्दगी,
उदास लम्हात को यूँ  फिर सजा ज़िन्दगी.

वो सभी ख़ुश्बुओं के दायरे घुल चले स्वतः 
नीली नूर में धुली कोई आग जला ज़िन्दगी,

फिर उन आँखों में देखी है जीवन की उमंग,
साँसों को इकबार यकीं फिर दिला ज़िन्दगी,

रुके रुके से हैं, फूलों के मौसम न जाने क्यूँ 
व्यथित चेहरों में  गुल फिर खिला ज़िन्दगी,

कौन है जो, मासूम दिलों से खेलता है बारहा
न उठे दोबारा उन्हें मिट्टी में मिला ज़िन्दगी,

ये फिज़ाएं पुकारती हैं अमन के परिंदों को 
फिर कहीं से मुहोब्बत को ले आ ज़िन्दगी, 

--- शांतनु सान्याल 
आवाहन

वो राजपथ से बहते रुधिर धारे

क्लांत, कराह्तीं देवालय,

पाखंडों का पैशाचिक नृत्य

क्या यही है भरतवंशी तेरा अंत

फिर क्यूँ नहीं उठती शौर्य

की वो गंगन चुम्बित जयकारे,

हे ! नव प्रजन्म उठा शपथ

कोटि कोटि जन के परित्राण हेतु

कर कवच धारण,माँ भारती

करे आवाहन, हे! तुम्हें सनातनी,

हों एक धर्म रक्षार्थ सहस्त्र किनारे !

-- शांतनु सान्याल
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